पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/६३९

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ऊनविंश अध्याय पर कि वह वस्तुतः निःस्वभाव हैं। उनकी निःस्वभावता की न्याख्या करके हम अविपरीत अर्थ को प्रकट करते हैं। प्राचार्य नागाईन के अनुसार तथागत के व्यक्तित्व का यह रहस्य है कि उसे शत्य नहीं कहा जा सकता और अशून्य भी नहीं कहा जा सकता | इसी प्रकार उभय (शल्य-प्रशल्य ), अनुभय ( न शून्य, न अशन्य ) भी नहीं कहा जा सकता। किन्तु व्यवहार- सत्य की दृष्टि से शन्यता आदि का अारोपण कर प्रज्ञापित किया जाता है। प्राचार्य कहते है कि जिस प्रकार तथागत में उपयुक्त शुन्यता प्रादि का चतुष्टय अप्रसिद्ध है, वैसे ही शाश्वत प्रादि का चतुष्टय ( लोक शाश्वत है या अशाश्वत, उभय है या अनुभय) तथा लोक की अन्तता-अनन्तता श्रादि ( लोक अन्तवान् है या अनन्त, उभय है या अनुभय, तथागत मरण के बाद उत्पन्न होते हैं या नहीं, उनका उभय है, या अनुभय ) श्रादि के प्रश्न सर्वथा अप्रसिद्ध है। आचार्य कहते हैं कि तथागत प्रकृतितः शान्त, नि:स्वभाव, एवं प्रपंचातीत है, किन्तु लोग अपने बुद्धिमान्ध के कारण उनके संबन्ध में शाश्वत-अशाश्वत, नित्य-अनित्य, अस्तिता. नास्तिता, शून्यता-अशून्यता, सर्वज्ञता-असर्वज्ञता श्रादि की कल्पनाएँ करते हैं। किन्तु वे यह नहीं समझते कि ये सभी प्रपंच बस्तुमूलक होते हैं, किन्तु तथागत अवस्तु हैं । अतः प्रपंचातीत एवं अव्यय हैं। ऐसे भगवान बुद्ध के संबन्ध में जो लोग अपनी उपेक्षा से मिथ्या कल्पनाएं रच लेते हैं, वे अपने ही प्रपंचों के कारण तथागत-ज्ञान से वंचित होते हैं, और अपना नाश कर लेते हैं। तथागत व भाजन-लोक की निःस्वभावता जैसे सत्य-लोक निःस्वभाव है, वैसे भाजन-लोक ( जगत् ) भी नि:स्वभाव है; क्योंकि जिस स्वभाव का तथागत होता है, उसी स्वभाव का यह जगत् भी होता है। यतः तथागत निःस्वभाव है, अतः जगत् भी नि:स्वभाव है।' प्राचार्य चन्द्रकीर्ति तथागत और लोक दोनों की नि:स्वभावता को सूत्रों से भी प्रमाणित करते हैं- तथागतो हि प्रतिबिम्बभूतः कुशलस्य धर्मस्य अनासवस्य । नैवात्र तथता न तथागतोऽस्ति बिम्नं च संदृश्यति सर्वलोके ।। (म० का० पृ० ४४६) .. गम्पमिति न बक्तव्यमशम्पमिति वा भवेत् । उभयं नोभयं चेति प्राप्यर्थ । कथ्यते ।। (२२) २. प्रपन्चायन्ति ये युद्धं प्रपदातीतमम्मयम् । ते मपम्बहसार वर्षे न पश्यन्ति वथागतम् ।। (२) १. मागतो पत्स्वभाबस्तत्स्वभावमिदं जगत् । स्थागतो निस्वभावो निःस्वभावमिदं जगत् ।। (२२)