पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/६४०

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गया विपर्यास का निषेध प्राचार्य क्लेशों ( राग, द्वेष, मोह ) की भी प्रसत्ता सिद्ध करते हैं। कहते हैं कि राग, वेष, मोह संकल्प से उत्पन्न होते हैं। शुभ श्राकार की अपेक्षा से राग, अशुभ की अपेक्षा से देष, विपर्यास की अपेक्षा से मोह उत्पन्न होता है। इन तीनों की उत्पत्ति में साधारण कारण संकल्प है । इन शुभ, अशुम और विपर्यासों की अपेक्षा से उत्पन्न होने के कारण रागादि अकृत्रिम एवं निरपेक्ष सिद्ध नहीं होंगे। श्रात्मा के संबन्ध में जब अस्ति-नास्ति कुछ भी सिद्ध नहीं किया जा सकता, तब उसके बिना उसके आश्रित अन्य धर्मों का अस्तित्व-नास्तित्व कैसे सिद्ध किया जा सकता है। क्योंकि क्लेश किसी का श्राश्रय लेकर सिद्ध होते हैं, वह आश्रय अात्मा ही हो सकता था, जिसका पहले ही निषेध कर । ऐसी अवस्था में बिना श्राश्रय के क्लेश कैसे होंगे। क्लेशों के हेतु शुभ, अशुभ, और विपर्यास भी निरपेक्ष, निःस्वभाव नहीं हैं। रूप, शब्द, गन्धादि का पालंबन करके क्लेश-त्रय होते हैं, किन्तु रूप, शब्दादि कल्पनामात्र, स्वप्नतुल्य है । मायापुरुष में या प्रतिबिंब में शुभ-अशुभादि क्या होंगे। शुभ-अशुभ आदि सभी क्लेश-हेतु तथा क्लेश अन्योन्य की अपेक्षा से प्रज्ञापित होते हैं, अतः सभी नि:- स्वभाव है । 'अनित्य में नित्य बुद्धि होना' मोह है, किन्तु शून्य में अनित्यता क्या होगी, जिसमें नित्य बुद्धि हो। अनित्य में नित्य बुद्धि यदि विपर्यास है, तो शून्य में अनित्य-बुद्धि भी क्या विपर्यास नहीं है । वस्तुतः ग्रहीता जिन नित्यत्व प्रादि विशेषों से रूप, शब्द आदि वस्तुओं का ग्रहण करता है, वे समस्त स्वभावतः शान्त है; अतः उनका ग्रहण सिद्ध नहीं होता। जब ग्रहण ही सिद्ध नहीं है, तो उसके मिथ्या या सम्यक् होने का प्रश्न ही कहां है ? पहले यह दिखाया गया है कि भावों की स्वतः, परतः श्रादि कारणों से उत्पत्ति नहीं है। ऐसी अवस्था में विपर्यय की सिद्धि कैसे होगी। इस प्रकार योगी जब विपर्यासों को उपलब्ध नहीं करता, तो उससे उत्पन्न अविद्या भी निरुद्ध हो जाती है। अविद्या के निरोध से अविद्या से उत्पन्न होने वाले संस्कारादि निरुद्ध होते हैं। चार पार्य-सस्यों का निषेध वादीमावर वादी कहता है कि यदि शून्यवाद में बाह्य-श्राध्यात्मिक सब शत्य है, और किसी पदार्थ का उदय-व्यय नहीं है, तो शून्यवाद में चार आर्यसत्यों का भी अभाव होगा। दुःख की सत्यता पार्यों को ही बात होती है। सत्र में उक्त है कि ऊर्णा को करतल पर रखते हैं, तो वेदना नहीं होती, किन्तु जब उसे अक्षि-गत करते हैं, तो वह द्वेष एवं पीड़ा की जनक होती है । १. पेन हातियो प्राहो होता पन्ज गृह्यते । उपशान्तानि सर्वाणि तस्माद माहोन वियते ॥ (२०१५)