पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/६४१

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ऊगाविंश अन्याय अनार्य बाल करतल के सदृश है, वह संस्कार-दुःखता का अनुभव नहीं करता, आर्य विद्वान् अक्षि के सहश है, वह उससे अत्यन्त उद्विग्न हो जाता है। यह दुःख आर्य-सत्य तब युक्त होगा, जब संस्कारों का उदय-व्यय संभव होगा, किन्तु जब शून्यवाद है तो किसी के उदय-व्यय का प्रश्न ही नहीं उठता । फलतः शून्यवाद में दुःख आर्य-सत्य न होगा। जब दुःख ही नहीं होगा, तो उसके समुदय का अवकाश नहीं है, अतः समुदय-सत्य भी न होगा । जो दुःख का हेतु है, वह समुदय है । वह समुदय, तृष्णा, फर्म, क्लेश है। दुःख का पुनः उत्पन्न न होना निरोध-सत्य है, किन्तु जब दुःख और समुदय नहीं है तो निरोध कहाँ है ? यदि दुःख-निरोध नहीं है तो मार्ग-सत्य भी नहीं है। शल्यवाद में जब चतुराय-सत्यों का प्रभाव है, तो उनकी परिशा ( अनित्यादि प्राकारों में दुःख-सत्य का शान ) दुःख-समुदय का प्रहाण, दुःखनिरोधगामिनी प्रतिपत्तियों की भावना और दुःख-निरोध का साक्षात्कार नहीं होगा। इन चार आर्य-सत्यों के अभाव में तथा उनकी परिज्ञा श्रादि के अभाव में चार आर्य-फल ( स्रोतापत्ति, सकृदागामी, अनागामी, आईत्) भी नहीं होंगे और फलाभाव से फलस्थ पाठ महापुरुर-पुद्गलों का अभाव होगा । अष्ट पुरुष- पुद्गल के अभाव में संघ नहीं होगा। आर्य-मल्यों के अभाव में सद्धर्म ( निरोध-सत्य फलधर्म है, मार्ग-सत्य फलावतार धर्म है । यह अधिगम-धर्म भी है, मार्ग की प्रकाशिका देशना श्रागम- धर्म है ) नहीं हैं। धर्म और संघ के अभाव में बुद्ध भी नहीं होंगे। इस प्रकार इन दुर्लभ त्रिरत्नों से भी शन्यवादी वंचित होगा। सिदान्तीका परिहार प्राचार्य कहते हैं वादी ने अपनी कपोल-कल्पना से ही शन्यता का अर्थ अभाव कर लिया, और भावों का उत्पाद-विनाश नहीं बनेगा, इसका शत्यवादी पर उपालंभ भी दे लिया, और उनके प्रति खिन्न भी हो लिया । वस्तुतः वादी अपने ही विविध विकल्पों से मारा जा रहा है। माध्यमिक ने शल्यता का वादी-कल्पित अर्थ नहीं किया है, अतः वादी को शन्यता के अभि- धान का प्रयोजन भी ज्ञात नहीं हुभा । शून्यता के उपदेश का प्रयोजन अशेष प्रपंच का उपशम है । जो शून्यता का अभाव अर्थ करता है, वह प्रपंच जाल का विस्तार करता जा रहा है। प्रतीत्यसमुत्पाद शब्द का जो अर्थ है, वही शून्यता शब्द का अर्थ है । अभाव शन्द का नो अर्थ है, वह शन्यता शब्द का अर्थ नहीं है। चन्द्रकीर्ति श्राचार्य के वचन' से इसे पुष्ट करते है। चन्द्रकीर्ति कहते है कि माध्यमिक सिद्धांत पर पूर्वोक आक्षेत्र के लोग करते हैं, बो मगवतचन के अभिप्रेत सत्य-द्वय का विभाग नहीं जानते। प्राचार्य नागार्जुन ने परम करुणा से प्रेरित होकर भगवद्वचन के सत्य-द्वय की व्यवस्था की है। मध्यमकावतार ...प्रवीसमुत्पादाम्यतां तां प्रचक्षते । सा प्रतिसादाम प्रतिपल्सव मध्यमा ।। (विग्रहम्पावर्तनी)