पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/६४२

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कीर्ति कहते है कि जो सत्य-द्वय के विज्ञान से रहित है, उसे कथमपि मोक्ष-सिद्धि नहीं होगी। प्राचार्यपाद के ज्ञानमार्ग से जो बहिर्गत हैं, उनके कल्याण के लिए कोई उपाय नहीं है। बुद्ध की धर्म-देशना दो सत्यों का श्राश्रयण करती है— लोक-संवृति-सत्य और परमार्थ-सत्य। पदार्थ-तत्व का समन्ततः अवच्छादन करने से ( समन्ताद् वरणम् ), अथवा अन्योन्य का आश्रय लेकर उत्पन्न होने से ( परस्परसंभवनम् ), संवृति व्युत्पन्न है । संवृति लोक-व्यवहार को भी कहते हैं। क्योंकि लोक-व्यवहार शान-ज्ञेय का संकेत है। चन्द्रकीर्ति ने मध्यकावतार में विस्तार से सत्य-दय की विवेचना की है। समस्त बाह्य- आध्यात्मिक पदाथों के दो स्वरूप हैं। वस्तुओं का पारमार्थिक रूप वह है, जो सम्यक् द्रष्टा आर्य के ज्ञान का विषय है, किन्नु उसकी स्वरूप-मत्ता नहीं है ( न तु स्वात्मनया सिद्धम् ) । वस्तुत्रों का सांवृतिक रूप वह है, जो पृथग्जन को मिथ्याष्टि का विषय है, किन्तु इसका भी स्वरूप प्रसिद्ध है। समस्त पदार्थ इन दो रूपों को धारण करते हैं । इन दो स्वरूपों में सम्यक् द्रष्टा का जो विश्य है, वह तत्व है । वही पारमार्थिक सत्य है। मिथ्या-दृष्टि का जो विषय है, वह संवृत्ति-सत्य है। वह परमार्थ नहीं हैं।' मिथ्यादृष्टि भी सम्यक् और मिथ्या भेद से दो है । इसलिए पूर्वोक्त मिथ्यादृष्टि ( संवृति- सत्य ) के दो ज्ञान और उनके दो विषय है । (१) शुद्ध तथा रोगरहित इन्द्रियों वाले व्यक्ति का बाह्यविषयक ज्ञान, (२) दोप-अस्त इन्द्रियों वाले व्यक्ति का ज्ञान । स्वस्थ इन्द्रियों वाले व्यक्ति के ज्ञान की अपेक्षा दुष्टेन्द्रिय व्यक्तियों का ज्ञान मियाज्ञान है । . सांकृतिक सत्यता और मिथ्यात्व का निर्णय केवल लोक की अपेक्षा से ही होता है, अार्यज्ञान की अपेक्षा से नहीं। 1. प्राचार्य नागानपावमार्गाद्वबहिर्गतानां न शिवेप्रत्युपायः । आधा हि ते संवृतितावसस्यात् तभ्रंशतरवास्तिक मोक्षसिद्धिः । उपायभूतं म्यवहारसस्यमुपेयभूतं परमार्थसस्यम् । तयोविभाग न परति यो वै मिण्याविकरूपैः स कुमार्गयातः ।। (मध्यमकावतार 12.) २. सत्ये समुपाश्रिम बानो धर्मदेशना । बोकसंवृतिसत्यं च सत्यं च परमार्थतः ॥ (म. का० २५८) ३. सम्पमधादर्शनलम्भभावं रूपद्वयं विधति सर्वभावाः । सम्यगण यो विषयः स तवं मृपायां संवृतिसत्यमुखम् ।। (म.का ६२५) • सुपारशोऽपि द्विविधास्त इटा, दीन्द्रिया इन्द्रिमदोषवन्तः । दुष्टेमियावां किन बोध हरः सुस्थेन्द्रियशालमा मिथ्या ।।