पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/६४३

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ऊनविंशमध्याय खोज-संवृति-सय वस्तुतः मोह संवृति है, क्योंकि वह वस्तु के यथार्थ स्वभाव को श्रावृत करता है । संवृति एक ओर वस्तु के स्वभाव-दर्शन के लिए श्रावरण खड़ा करती है, दूसरी ओर पदार्थों में असत्- स्वरूप का अारोपण करती है। संवृति निःस्वभाव एवं सत्याभासित पदार्थों को स्वभावेन तथा सत्यरूपेण प्रतिभासित करती है। किन्तु यह अत्यन्त मिथ्या है। लोकदृष्टि से ही इसकी सत्यता है, अतः इसे लोक-संवृति-सत्य कहते हैं। यह प्रतीत्य-समुत्पन्न है, इसलिए कृत्रिम है। अविद्वान् को कभी प्रकृतिम (स्वभवः ) नहीं भासता । प्रतिबिंब, प्रतिश्रुत्क श्रादि मिथ्या हैं, फिर भी उसे भासित होते हैं । नीलादि रूप तथा चित्त-वेदनादि भी सत्य भासित होते हैं। ये दोनों प्रकार के दृष्टान्त प्रतीत्यसमुत्पन्न है, इसलिए संवृति-सत्य की कोटि में आते हैं। किन्तु जो संवृति से भी मृषा है, वह संवृति-सत्य नहीं है ( संवृत्यापि यन्मृषा तत्संवृतिसत्यं न भवति )। भवाङ्ग ( अविद्या, संस्कार, नामरूप आदि) संवृति-सत्य है, किन्तु संक्लिष्ट अविद्या से प्रस्त व्यक्ति के ही लिए । श्रावक, प्रत्येकबुद्ध तथा बोधिसत्व के लिए वह संवृति मात्र है, सत्य नहीं है, क्योंकि वे संक्लिष्ट अविद्या को नष्ट कर चुके हैं, और समस्त संस्कारों को प्रतिबिंब के तुल्य देखते हैं । इनमें वस्तु के प्रति सत्याभिमान नहीं है। जिस वस्तु से बाल- पृथ-गजन ठगा जाता है, उसे आर्य संवृतिमात्र मानता है । आर्य को क्लेशावरण नहीं है, केवल ज्ञेयावरण है; अतः उसे विषय साभासगोचर हैं, अनार्य को निरामासगोचरता है। बुद्ध को सर्व धर्म का सर्वाकार ज्ञान है, अतः वह संवृति-सत्य को संवृतिमात्र कहते हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि पृथग्जन के लिए. जो परमार्थ है, वही पार्यों के लिए संवृति है। संवृति की जो स्वभाव-शून्यता है, वही परमार्य है। बुद्धों का स्वभाव परमार्थ है, वह परमार्थ है, क्योंकि उससे किसी का प्रगोप नहीं है,परमार्थ-सत्य है । यह परमार्थ-सत्य प्रत्यात्म- वेद्य है। संवृति-सत्य प्रमोपक है, अतः वह परमार्थ-सत्य नहीं है। परमा सत्य परमार्थ-सत्य अवाच्य है एवं शान का विषय नहीं है। वह स्व-संवेद्य है, उसका स्वभाव लक्षणादि से व्यक्त नहीं किया जा सकता । परमार्थ-सत्य की विवक्षा से केवल इतना ही कहा जा सकता है कि जैसे तिमिर रोग से आक्रान्त व्यक्ति अपने हाथ से पकड़े धान्यादि पुंच को केशरूप में देखता है, किन्तु उसे शुद्ध दृष्टिवाला जिस रूप में देखता है वही तत्व होता है, वैसे ही अविद्यातिमिर से उपहत अतस्व-द्रष्टा स्कन्ध, धातु, श्रायतन का जो स्वरूप ( सांवृतिक) उपलब्ध करता है, उसे ही अविद्या-वासना रहित बुद्ध जिस दृष्टि से देखते हैं वही परमार्थ- १. मोहा समाचावरणादि संपतिः सत्यं तपास्याति पदेव निमम् । जगार संपतिसत्पमित्मसो मुनिः पदार्थ वर संबतिम् ॥ (मध्यमार ARMR)