पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/६४४

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बौद-धर्म-दर्शन प्रश्न उठता है कि परमार्थ-सत्य अवाच्य अदृश्य है, तो उसे अविद्या-रहित भी कैसे देखेंगे। चन्द्रकीर्ति कहते हैं कि श्रदर्शन-न्याय ( न देखा जा सकना) से ही उसका देखना संभव है । परमार्थ-सत्य की किसी प्रकार देशना नहीं हो सकती, क्योंकि जिसके द्वारा देशित होना है, जिसके लिए देशना करनी है, और जिसकी देशना करनी है। ये सभी परमार्थतः अनुत्पन्न है। इसलिए अनुत्पन्न धर्मों से ही अनुत्पन्न धर्मों को बताया जा सकता है | तत्व में भाव-अभाव, स्वभाव-परमाव, सत्य-असत्य, शाश्वत-उच्छेद, नित्य-अनित्य, सुख-दुःख, शुचि- अशुचि, आत्मा-अनात्मा, शून्य-अशून्य, लक्षण-लक्ष्य, एकत्व-अनेकत्व, उत्पाद-निरोधादि नहीं होते । तत्व के ज्ञान में आर्य ही प्रमाण है, अनार्य बाल नहीं । एक प्रश्न है कि माध्यमिक यदि लोक का भी प्रामाण्य स्वीकार करते हैं, तो लोक अवश्य तत्वदर्शी होगा, क्योंकि जड़ प्रमाण नहीं होता । चक्षुरादि से ही तत्वनिर्णय होना है, अतः श्रार्यमार्ग के अवतरण के लिए शील, श्रुति, चिन्ता, भावना श्रादि का प्रयास अवश्य निष्फल होगा। चन्द्रकीर्ति कहते हैं कि लोक सर्वथा प्रमाण नहीं हो सकता, लोक-प्रमाण से तस्वदशा में बाधा भी नहीं होती । हाँ, लोक-प्रसिद्धि से लौकिक अर्थ अवश्य बाधित होगा।' प्राचार्य नागार्जुन कहते हैं कि जो लोग इस सत्यद्वय का विभाग नहीं जानते वह गंभीर बुद्धशासन के तत्व को नहीं जानते । सत्यमका प्रयोजन वादी प्रश्न करता है कि माध्यमिक-सिद्धान्त में जत्र परमार्थ निष्प्रपञ्च स्वभाव है, तो भगवान् ने अपरमार्थभूत स्कन्ध, धातु, आयतन, चार आर्य सत्य, प्रतीत्यसमुत्पाद आदि की देशना क्यों की । अतत्व परित्याज्य होता है, और परित्याज्य का उपदेश करना व्यर्थ है । श्राचार्य कहते हैं कि व्यवहार ( अभिधान-अभिधेय, शान-शेय श्रादि) के अभ्युपगम बिना परमार्थ की देशना अत्यन्त अशक्य है। और परमार्थ के अधिगम के बिना निर्वाण का अधिगम अशक्य है। जो लोग सत्य-द्वय की व्यवस्था को नहीं जानते किन्तु, शल्यता का वर्णन करते हैं, उन मन्दप्रश लोगों को दुष्ट शन्यता वैसे ही नाश कर देती है, जैसे ठीक से न पकड़ा गया सर्प तथा प्रविधि से प्रसाधित कोई विद्या किसी साधक का । चन्द्रकीर्ति कहते हैं 1. खोकप्रमाणं महि सर्वथा वो शोकस्म भो तापदामुपाया । बोकासिया यदि कौकिकोऽयों वाध्येत खोकेन भवेति माया ॥ (11) २, मवहारमनाविप परमार्यों न देयते । परमार्थमनागम्य निर्वायं नाधिगम्यते । ३. विनाशयति दुईष्टा शून्यता मन्वमेधसम् । सपा का दुराहीतो विद्या का दुष्प्रसाधिता ॥ ( म..mom)