पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/६४५

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ऊनधि अध्याय कि जो योगी अज्ञानमात्र से समुत्थापित संवृति-सत्य को निःस्वभाव जानकर शन्यता को परमा- थता को जानता है, वह अन्त-द्वय (उच्छेद, शाश्वत) में पतित नहीं होता। किसी भी पदार्थ का पहले अस्तित्व नहीं था, जिसके नास्तित्व को योगी ने बाद में जाना हो, क्योंकि उसने पहले भी ( सदा ही ) भाव-स्वभाव की अनुपलब्धि की है, अतः बाद में उसके नास्तित्व-ज्ञान का प्रसंग ही नहीं है। योगी लोकसंवृति को प्रतिबिंव के ग्राझार में ग्रहण करता है, उसे नष्ट नहीं करता । इसलिए वह कर्म, कर्म-फल, धर्म-अधर्म आदि की व्यवस्था को बाधा नहीं पहुंचाता, किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि वह परमार्थ तन्व में सस्वभावना का श्रारोपण करता है। उसे इसकी आवश्यकता भी नहीं है, क्योंकि कर्म-फल अादि की व्यवस्था पदार्थों की निःस्वभावता के सिद्धान्त में ही संभव है, सस्वभाववाद में नहीं। यह निश्चित है कि शून्यता भाव या अमात्र दृष्टि नहीं है। इसीलिए श्राचार्य 'विनाशयति दुईटा शून्यता' पर अत्यधिक जोर देते हैं। चन्द्रकीति कहते हैं कि शल्यता एक महती विद्या है, भाव-अभाव दृष्टियों का तिरस्कार कर यदि उसे मध्यमा-प्रतिपत्ति से ग्रहण किया बाय, तो वह अवश्य ही साधक को निरुपधिशेष निर्वाण के सुख से युक्त करती है । अन्यथा- प्रहण से प्रहीता का नाश कर देती है। नागार्जुन कहते हैं कि शून्यता की इस दुखगाहता को देखकर ही भगवान् बुद्ध ने अपने को धर्मोपदेश से निवृत्त करना चाहा था, जो ब्रह्मा सईपति के अनुरोध से संभव नहीं हुआ। प्राचार्य कहते हैं कि शून्यता के सिद्धान्त पर वादियों के जितने श्राक्षेप हैं, वह सत्य- द्वय की अनभिशता के कारण है। शून्यता को अभावार्थक समझकर समस्त दोष दिये जाते है, किन्तु वादी शून्यता की अभावात्मक व्याख्या नहीं करता, प्रत्युत शत्यता का अर्थ प्रतीत्य- समुत्पाद करता है, अतः उसकी शून्यता-दृष्टि नहीं है। शल्यवाद में यथोक्त दोष नहीं होते, इसे सिद्ध कर श्राचार्य अब इस प्रतिज्ञा को सिद्ध करते हैं कि सर्व भाव-स्वभाव-शून्यता का अर्थ प्रतीत्य-समुत्पाद करने से शून्यवाद में चार आर्य सत्य, परिजा, प्रहाण, साक्षात्कार, भावना तथा फलादि की व्यवस्था बनती है, प्रतीत्यसमुत्पाद की अन्य व्याख्यानों में ये संभव नहीं हैं। प्राचार्य अपने सतीर्थों की उस अश्वारूढ व्यक्ति से तुलना करते हैं, जो अश्वारूद रहते हुम भी अत्यन्त विक्षेत्र के कारण अश्व के भुला देने का उपालंभ दूसरों पर देते हैं। श्राचार्य कहते हैं कि यदि भाव स्वभावतः विद्यमान है, तो वे हेतु-प्रत्यय निरपेक्ष होंगे। ऐसी स्थिति में कार्य-कारण, करण-कर्ता और क्रिया, उत्पाद-निरोध और फलादि समस्त बाधित होंगे, क्योंकि यदि घट स्वभावतः है, तो उसे मृदादि हेतु-प्रत्ययों से क्या प्रयोजन । फलतः घट का अभाव होगा, क्योंकि निहेतुक घट नहीं होता । ऐसी अवस्था में चा-चीवरादि करण, फर्ता कुम्भकार तथा घट बनाने की क्रिया का प्रभाव होगा । फिर घट का क्या उत्पाद और क्या निरोध उत्पाद-निरोध के अभाव में फलादि अत्यन्त असंभव है। इस प्रकार हम देखते हैं कि सस्वभाववाद मानते ही ये समस्त दोष अापतित होते हैं ।