पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/६५

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था। उनके रोषणशील मित्र कहते कि प्राचार्यबी श्राप स्वयं अपने अपर अत्याचार कर रहे है। मापके स्वास्थ्य की औषध स्वयं आपके हाथ में है। पर सम्भवतः यही एक ऐसी चिकित्साविधि थी, जिसका प्राचार्य बी ने कभी उपयोग नहीं किया । थे जिस प्रकृति के बने ये उसके रहते हुए ऐसा करना सम्भव भी नहीं था। यदि दर्शन की परिभाषा का उपयोग करने की अनुमति हो तो प्रज्ञानधन के स्थान पर उन्हें सौजन्यधन कहना उपयुक होगा। दूसरों के प्रति सज्जनता, और दूसरों का सम्मान यही उनका भारी गुण था। कह सकते हैं कि शासक के पद से यही सम्भवतः उनकी त्रुटि थी, क्योंकि वे उस लाक के लिए बने थे, जहाँ सज्जनता का साम्राज्य हो, बहाँ प्रत्येक व्यक्ति अपनी बुद्धि से स्वयं विचार करता हो, और जिस सम्मान का उसे पात्र समझा गया है, उसी के अनुरूप अजुता के धरातल पर वह भी व्यवहार करता हो। प्राचार्य जी के लिए यह समझना कठिन या कि सौजन्य और विश्वास का व्यवहार पाकर कोई व्यकि उनके साथ दूसरी तरह का बर्ताव क्यों करेगा । अस्तु, जीवन की सफलताएं और असफलताएं नवर , संसार अपने पथ पर थपेड़े खाता हुआ चला जाता है एवं सच्चन और असजन दोनों ही अपनी अपनी सीमाओं से परिवेष्टित आगे बढ़ने के लिए मजबूर होते हैं। किन्तु एक सत्व जिसका केवल सौजन्य द्वारा ही जीवन में साक्षात् किया जा सकता है, वह प्राणिमात्र के प्रति अनुकंपा और करुणा का मात्र है । औरों के दुःख से दुःखी होने की क्षमता भी प्रकृति सबको नहीं देती। जिसमें इस प्रकार की क्षमता है, जिसके केन्द्र में इस प्रकार का कोई एक गुण लवलेश है उसे ही हम बोधिचित्त वाला व्यक्ति कहते हैं। इस प्रकार के व्यक्ति समाज के सौरभ है, वे देवपूजा में समपित होने योग्य पुष्पों के समान है। यह क्या कम सौभाग्य है कि प्राचार्य जी का जीवन मातृभूमि के लिए समर्पित हुश्रा और राष्ट्र के अधिदेवता ने उनको उस पूचा को स्वीकार किया | श्राच महामन्त्री से लेकर साधारण किसान तक उनके शोक से भाकुल है । ईश्वर करे इस प्रकार के बोधिसत्व व्यक्ति समाज में जन्म लेते रहें, जिससे मानता का प्रादर्श राष्ट्र में ओझल न होने पावे। हिन्दू विश्वविद्यालय काशी वासुदेवशरण अग्रवाल