पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/६५४

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बौर-धर्म-दर्शन का बाल अस्तित्व है, संस्कृत या संघात का नहीं । इस पक्ष में प्रतीत्यसमुत्पाद ( हेतु-फल- परम्परा ) का सिद्धान्त काम करता है। हेतु-प्रत्यय-वश धर्मों की उत्पत्ति होती है । हेतु-फल की केवल परंपरा है, अर्थात् इसके होने पर यह होता है। जब वर्ण-संज्ञा की उत्पत्ति होती है, तब उस वस्तुमात्र से ज्ञान की उत्पत्ति नहीं होती, किन्तु तीन धर्म अर्थात् विज्ञान, वर्ण- धर्म और चक्षु-धर्म एक साथ उत्पन्न होते हैं। यह तीन भिन्न धर्म समान महत्त्व के हैं। सर्वास्तिवादी बौदों का वाद बहुधर्मवाद है। न्याय-वैशेषिक भी बहुबाह्यवस्तुवादी हैं । ये दोनों बाह्य वस्तुत्रों के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं। किन्तु न्याय-वैशेषिक के अनुसार अवयव और संघात दोनों की स्वतन्त्र सत्ता है। वैमाषिक तथा सौत्रान्तिक प्रकरण में धर्मों का हम विशद विवेचन कर चुके हैं, किन्तु यहां न्याय के उद्गम को स्पष्ट करने के लिए धर्मों का अति संक्षिप्त परिचय देते हैं। प्रमाणों के उद्गम की प्रमेय (धर्म) भूमि चौद्धों का पंचस्कन्ध दो भागों में विभक्त होता है:-(१) चित्त-चैत्त और (२) रूप । रूप-धर्म चार महाभूत या भौतिक रूप के परमाणु है। यह चार महाभूत सर्वत्र अर्थात् सब अप्रतिष भौतिक रूपों सममात्रा में पाये जाते हैं । ये चार महाभूत इस प्रकार हैं:- पृथिवी-धातु (भूति-कर्म ), श्रधातु ( संग्रह-कर्म ) तेजोधातु ( पक्ति-कर्म ), वायु- धातु ( व्यूहन-कर्म ) । पृथिवी-धातु का ख़र स्वभाव है, अब्धातु का स्नेह, तेजोधातु का उष्णता और वायु-धातु का ईरण है। हम देखते हैं कि यह चार महाभूत या चार धातु संस्कार ( फोर्म ) है । जल' में पृथिवी-धातु भी अपनी वृत्ति को उभावित करता है, क्योंकि यह नौका का संधारण करता है। भौतिक धर्म उन पांच विद्वानों के समकक्ष हैं, जिनका श्राश्रय पञ्चेन्द्रिय हैं । रूप, शब्द, गन्ध, रस और स्पर्श हैं । भौतिक धर्म को अपनी धृति के लिए चार महाभूतों में से प्रत्येक के एक एक धर्म की श्राव- श्यकता है । अतः बौद्ध-दर्शन में किसी द्रव्य के स्थान में महाभूत-चतुष्क और भौतिक द्रव्य है । यह सब स्वतन्त्र तथा राम हैं। किन्तु हेतु-प्रत्ययवश श्रन्योन्य संबद्ध है, जिनके कारण सदा एक साथ इनकी उत्पत्ति होती है। महाभूत धर्म स्वयं स्पष्टव्य में परिगणित है । प्रष्टव्य महाभूत तथा भौतिक दोनों को दृढ़ करता है । संघात-परमाणु कम से कम अष्ट-द्रव्यक होता है। इनमें से चार मुख्यवृत्या द्रव्य, अर्थात् चार महाभत हैं, जो भौतिक-रूप (रूप, गन्ध, रस और प्रष्टव्य ) के श्राश्रयभूत है, और चार पायतन है, जो महाभूतों के आश्रयिभूत हैं। यदि द्रव्य में शब्द की अभिनिष्पत्ति होती है, तो शब्द का एक परमाणु अधिक होता है । भावन और सत्वलोक में संघात रूप अधिक जटिल हो जाता है, क्योंकि रूप-धर्म सूक्ष्म संस्कारमात्र निश्चित किये गये हैं, अत: चित-चैत्त को रूप से पृथक करने वाली रेखा अब अनुल्लंघनीय न रही । बौद्ध-धर्म में प्रारंभ से ही यह दो प्रश्न नहीं पूछे गये है-चित्र-चैत्त क्या है, और प्रकार