पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/६५८

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ब्रह्मन् , । ५७० बैट-अर्म-दर्शन संबध स्पष्ट नहीं है। कभी श्राकाश एक द्रव्यविशेष बताया जाता है, जिसका गुण शब्द है। शन्द गुण है, न कि द्रव्य । यह आकाश का लिङ्ग है। क्योंकि शब्द से नाकाश का अनुमान होता है। दिक् और काल के सिद्धान्त एक दूसरे के समकक्ष हैं, पड् दर्शनों में से कोई भी दर्शन इससे प्रारंभ नहीं होता, यद्यपि सब इन प्रश्नों का उल्लेख करते हैं । वैशेषिक में इन पर विशेष ध्यान दिया गया है। उसमें इन दोनों को नौ द्रव्यों में परिगणित किया है। दिक् के अतिरिक्त श्राकाश द्रव्य भी नौ में गिनाया गया है। पहले हम कालवाद की समीक्षा करेंगे। कालका उगम भारतीय-दर्शन के विकास का इतिहास उस कथा से प्रारंभ होता है, जिसके अनुसार विराट् पुरुष ने संसार की सृष्टि की। इस कथा के अनुसार पुरुष ने जिसको वेद में प्रजापति कहा है, अनेक विकल्पों द्वारा अपने में से दृश्य भाजन-लोक और सत्व-लोक को प्रकट किया । इसी प्रजापति को श्रात्मन् कहते हैं। कदाचित् बौद्ध-धर्म में यह महापुरुष तथागत है; ब्राह्मण धर्म में यह गुण विष्णु और शिव का बताया गया है जिन द्रव्यों को पुरुष ने अपने में से प्रकट किया, उनमें से एक काल है, जिसे प्राचीन संवत्सर कहते थे। उस समय काल शब्द का प्रयोग एक दूसरे हा अर्थ में होता था। ऋग्वेद ( १०११६०।२ ) के अनुसार 'संवत्सर' की उत्पत्ति अर्णव... ...सं सबसे पहले हुई । वृहदारण्यक ( ११४) के अनुसार पुरुष ने सबसे पहले 'वान्' को प्रकट किया और पश्चात् स्वयं मनस द्वारा उसके साथ मृत्यु और बुभुक्षा के रूप में संभोग किया। जो सुक स्खलित हुआ, वही संवत्सर था । इसके पूर्व संवत्सर न था । मृत्यु का अपत्य संवत्सर स्वयं मृत्यु है । अतः विश्व का जो भाग इससे व्याप्त है, यह नाश-शील और अनित्य है । काल को संहार और नियति का देवता मानना, काल का यम के साथ तादाम्य, दैव-विधि में जो विश्वास है, उसके साथ काल का संबन्ध होना, इन सब विचारों का उद्गम स्थान यही कया है। सृष्ट काल के परे अमृत पदार्थ है, जिसका अन्त नहीं है, जिसकी इयत्ता नहीं है। और जो अकल, अनदयवी है | विश्व के ऊर्ध्वभाग को यह व्याप्त करता है। किन्तु इसके अतिरिक्त अनन्त और सभाग होने के कारण यह भूतकोटि को पार कर परमार्थ के आयतन तक भी पहुंचता है। पुरुष के स्वभाव से इसका तादात्म्य है। उस अवस्था से इसका तादात्म्य है, जो सृष्टि-क्रिया के पूर्व वर्तमान थी। पाछे के में शाश्वत के इस पदार्थ को काल भी बताया गया है। किन्तु यह विरोध भास- तासात्र है। जो काल विभाज्य है, सकल है, परिवर्तन शील है, और प्रवाहित होता रहता है। वह शाश्वत काल का उपाधिमात्र है। अन्यथात्व, अनित्यता और मृत्यु शाश्वत के गर्भ में केवल क्षोभमात्र है। वहीं देवता जो वुभुक्षा और मृत्यु के रूप में 'वाच' में शुक्र स्खलन करता है, वही साथ साथ अपने वास्तविक स्वभाववश मृत्यु के परे है। यह शाश्वत है, अमितायु है । उसके लिए मृत्यु नहीं है । एक शब्द में वह शाश्वत काल है । कुछ वाक्यों