पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/६६३

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विश अध्याय प्राचीन बौद्धधर्म में-कुछ विद्वानों का ऐसा अनुमान है-उपनिषदों के समान इसमें केवल रूप को ही अनित्य माना जाता था, और अन्य सूक्ष्म धर्म जैसे चित्त, विज्ञान प्रादि अनित्यता के परे थे। यह संभव है कि बौद्धधर्म में भी इस कल्पना का संबन्ध काल के दो भेद से भी रहा हो—एक अनवयवी और नित्य तथा अमृत से अभिन्न और दूसरा औपाधिक अवयवी-सकल और अनित्य बस्तुओं की उत्पत्ति को निश्चित करनेवाला। यह भी हो सकता है कि शाश्वत-काल अाकाश या विज्ञान के तुल्य एक भिन्न आयतन न रहा हो, किन्तु वह केवल एक प्रवाह था, जो सूक्ष्म और स्थूल रूपी द्रव्यों को व्याप्त करता था। इतना तो कहा ही जा सकता है कि काल से औपाधिक द्रव्यों की उत्पत्ति होती है, इस कल्पना का ममर्थन बौद्ध साहित्य में भी है। महाविभाषा (पृ० ३६३ ए में निम्न मिथ्याष्टि का उल्लेख है-काल का स्वभाव नित्य है, किन्तु संस्कृत धर्मों का स्वभाव अनिल्य है । संस्कृत धर्म काल के भीतर वैसे ही भ्रमण करते हैं जैसे एक फल एक भाण्ड से दूसरे भाण्ड में अथवा जैसे एक पुरुष एक गृह से दूसरे गृह में। इसी प्रकार संस्कृत धर्म मविण्यत् से निकलकर वर्तमान में आते हैं, और वर्तमान से निकलकर भूत में प्रविष्ट होते हैं । हम यह मान सकते हैं कि जहां पूर्व में काल की कल्पना एक ही विभु भाण्ड के रूप में थी, जिसमें भविष्यत् , वर्तमान और भूत ये तीनों एक दूसरे के ऊपर तह में तह लगाए. हुए है, वहाँ पीछे तीनों भाण्डों की कल्पना हो गई। इस संबन्ध में एक और बात कही जा सकती है। अभिधर्मकोश (तीन कोशस्थान पृ० ६३ ) में काल्यवाद का एक ऐसा स्वरूप मिलता है, जिसमें भविष्यत् में उत्पन्न होने वाले कार्य का वर्तमानीकरण देशान्तर-कर्षण से होता है। सौत्रान्तिका का यह आक्षेप यथार्थ है कि इस कल्पना के श्राधार पर हम अरूपी धर्मों (नित्त-चैत्त) की उत्पत्ति नहीं समझा सकते; क्योंकि वह अदेशस्थ हैं। किन्तु यह आपत्ति पीछे के उन्ही विद्वानों पर लागू होती है, जो अरूपी धर्मों को भी अनित्य मानते हैं । परन्तु पूर्व हीनयान में केवल रूपी धर्म ही अनित्य है, और इसलिए, देशान्तर-कर्षण का सिद्धान्त वहाँ पूर्णतः सफल होता है; और इस प्रकार उसकी प्राचीनता की पुष्टि भी होती है। काल के इस सिद्धान्त के साथ कि वह एक भाएड है, जिसमें भविष्यत् , वर्तमान और भूत अवस्थान करते हैं, एक और प्रश्न जुड़ा है । यदि प्रवृत्ति अर्थात् जीवन की प्रक्रिया यही है कि भविष्यत् वर्तमान से होकर भूतकाल में पतित होता है, तो कभी न कभी एक क्षण ऐसा अवश्य श्राना चाहिये, जब कि सकल भविष्यत् नितान्त रूप समाप्त हो जायगा; और सकल विश्व केवल भूत हो जायगा । यह विवाद किसी अन्य में नहीं मिलता, किन्तु विभाषा (पृ. में एक विवाद है, जिससे यह अनुमान होता है कि उसका श्राधार ऐसा ही कोई विचार है- ३६५ ए) "सर्व भविष्यत् धर्म बहिर्गमन से संबन्ध रखते हैं (अर्थात् धर्म भविष्यत् से निकल कर भूत में प्रविष्ट होता है ) । यह क्यों कहा जाता है कि भविष्यत् में कोई हानि प्रशप्त ( प्राप्यते ) नहीं होती।" भदन्त वसुमित्र इसका यह उत्तर देते हैं-"भविष्यत् धर्मो, की अभी गणना नहीं हो सकती, और भूतों की गणना अब संभव नहीं है । दोनों अमित और इयत्ता से रहित