पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/६६५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

विश अध्याय १. बौद्ध-धर्म के पूर्वरूप में अनित्य स्थूलरूप और नित्य सूक्ष्म-चित्त यह दो माने गये थे। हीनयान में हम अनित्यता के उस नये सिद्धान्त का प्राधान्य पाते हैं, जिसके अनुसार रूप और चित्त दोनों अनित्य है। २. संसार में अब कोई गन्धर्व-पुद्गल संसरण नहीं करता, और जिसे व्यक्तित्व कहते हैं वह अब उदय-व्ययशील नाम-रूप धर्मों के प्रवाह में परिवर्तित हो गया है। ३. इन्हें 'धर्म' कहते हैं । इस अाख्या का प्रयोग पूर्व बौद्ध-धर्म में नित्य अभौतिक और अतीन्द्रिय वस्तु के अर्थ में होता था। 'धर्म' के इस नये अर्थ को ( सदा बहुवचन में ) हम एक विभु धर्म के ( जो तथागत का स्वभाव है ) भेद के रूप में ग्रहण कर सकते हैं, जैसे विभिन्न रूप-धर्म एक विभु-रूप के विभेद हैं। हीनयान के अनुसार 'धर्म' की व्याख्या इस प्रकार है-स्वलक्षणधारणात् या स्वभाव धारणात् इति धर्मः । इस प्रकार धर्म का अर्थ भाव (फेनामेना) का धारक हो गया, जो सन्तान में अपने को प्रकट करते हैं। ४. हीनयान के पूर्व निर्वाण अादि शुद्ध, प्रभास्वर चित्त का स्थूल रूप के कारण उत्पन्न क्लेश-श्रामवों से विमुक्त होना था। यह व्यवदान के साथ ही साथ मरणशील भौतिक जगत् से निर्यात कर सूर्य की दूसरी ओर प्रारूप्य-धातु में ( जो अमृत धातु है ) जाना भी था । यह प्रारूप्य-धातु भूतकोटि है। जो भिक्षु वहाँ पहुंच गया वह अच्युत-पद को प्राप्त हो गया, जहाँ से ज्युति नहीं है । वह अनागामी हो गया । कदाचिन् चर्या का यह चरम उद्देश्य था । किन्तु जब चित्त भी अनित्य हो गया तो इस विचार का कोई दूसरा अर्थ करना पड़ा। यह कहना पड़ा कि विमुक्ति को प्रास करने के लिए. चित्त-चैत्त धर्म के परे जाना चाहिये । वास्तविक नित्यता और अमृतत्व लोकोत्तर धर्म हो गये, जिसमें व्यवहार मर्वथा विनष्ट हो गया है। अब अनागामी वह श्रार्य हो गया जो भौतिक लोकों में जन्म नहीं लेता, और उसके ऊपर अहत् है जो मन के सब प्रकारों से सर्वथा विमुक्त है। ५. इन नये विचारों के कारण काल संबन्धी पुराना विचार भी वदला होगा । नित्य और सुष्ट-काल के बोच की सीमा इतनी खिसका दी गयी कि उसके अन्तर्गत सकल विश्व श्रा गया और मृत्यु के अधीन हो गया। सूर्य अत्र अमृत का द्वार नहीं और बहुत से लोक जो सूर्य के उस ओर थे, अब मार के वैसे ही अधीन हो गये जैसे कि नीचे के भौतिक लोक ! नए अमिधर्म में पहला प्रश्न यह है कि काल धर्म है या नहीं ? वैभाषिकों के अनुसार केवल ऐसे ही धर्म नहीं हैं, जो सन्तान में पतित हैं; किन्तु ऐसे भी हैं, जो संस्कृत घों के परे हैं, अर्थात् असंस्कृत है; जिनका दृष्ट-धर्म में श्राविर्भाव नहीं होता। अतः उनकी कोई निश्चित व्याख्या नहीं हो सकती। असंस्कृत तीन है-दो निरोष और आकाश । असंस्कृत श्राकाश का लिङ्ग अनावरणत्व है। इसके अतिरिक्त एक आकाश पातु भी है, जो सान्त और विभाज्य है। किन्तु जो असंस्कृत अाकाश की उपाधि