पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/६६६

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चौर-धर्म-दर्शन नहीं है, बल्कि भौतिक रूप है। इस उपमान से हम आशा करते थे कि इसी प्रकार नित्य और औपाधिक काल भी दो मिन धर्म माने जाएँगे। किन्तु ऐसा नहीं है। वैभाषिकों की ७५ धर्मों की सूची में किसी भी प्रकार के काल की गणना नहीं की गई है। तथापि प्रच्छन्न रूप में हम दोनों भावों को वैमाषिक ग्रन्थों में पाते हैं। नित्य काल का तादात्म्य अमृत धातु से है, जो निर्वाण-धातु का अधिवचन है। औपाधिक काल संस्कृत लक्षणों से छिपा है, अर्थात् जाति, स्थिति, चरा और अनित्यता में जो मिलकर वैशेषिकों के साधारण कारण के तुल्य है। इनका कारित्र प्रत्येक संस्कृत धर्म को त्रिकाल की अवस्था में श्राकृष्ट करना है । 'जाति' धर्म को भविष्यत् से बहिःनिःसृत करती है, और उसका प्रवेश वर्तमान में कराती है । 'स्थिति' एक क्षण के लिए धर्म का अवस्थान करती है। 'जरा' और 'अनित्यता' धर्म को वर्तमान से भूत में प्रविष्ट करती है । ( महाविमापा ३६४ ए देखिये-"जब तक तीनों संस्कृत लक्षण क्रियाशील नहीं है, तब तक धर्म 'भविष्यत्' कहलाता है। यदि उनमें से एक ने अपना कारित्र समाप्त कर दिया है, और दो अभी क्रियाशील है तो धर्म वर्तमान है । यदि उन सबने अपना कारित्र समाप्त कर दिया है, तो धर्म भूत कहलाता है।") यह सिद्धान्त न्याय-वैशेषिक के दो प्रभावों के भेद के समान है:-प्रागभाव ( = घटो भविष्यति ) और प्रध्वंसाभाव ( = घटो नष्टः)। इन दो अभावों के बीच ( यह दो अभाव पदार्थ हैं) वर्तमान भाव प्रक्षिप्त कर दिया गया है। जिस प्रकार वैभापिकों के भविष्यत् और भूत अवस्थाओं के बीच धर्म की उत्पत्ति है। यह भी माना जा सकता है कि श्रारंभ में केवल अनित्यता औपाधिक काल का स्थान लेती यो, और पीछे से इसका विकास गति-स्थिति- निरोध इस त्रिक में हुआ। उरवसी वैमारिक मत. संस्कृत लक्षणों के सिद्धान्त को निरूपित कर जो सर्व धर्मों के साथ सहयोग करते हैं, वैभाषिको के काल के पुराने वाद को समाप्त कर दिया। अब केवल एक विमु संस्कृत द्रव्य रह गया, जिसमें धर्म डूबे है। यह श्राफाश है। किन्तु काल को इस रूप में नहीं ग्रहण किया। यह ठीक है कि वैभाषिक कहने को कहते हैं कि धर्म कालत्रय में भ्रमण करते हैं। निरोध त्रिकाल के परे , और भविष्यत् और भूत भी हैं; किन्तु यह औप- चारिक मात्र हैं। प्रत्येक धर्म त्रिकाल में अवस्थान करता है, और त्रिकाल की व्याख्या इस प्रकार केवल संस्कृत धर्म का अधिवचन है । ( अभिधर्मकोश, १७-त एवावाः )। हम इस नए विचार के उद्देश्य का अनुमान कर सकते हैं। हो सकता है कि त्रिकाल के देशस्थ होने की कठिनाई इसका कारण हो । अाकाश को एक सभाग द्रव्य मान कर चो सकल विश्व को व्याप्त करता है, यह मानना पड़ेगा कि यह आकाश स्वयं एक दूसरे काल नामक द्रव्य से व्यास है। ऐसा विचार हमारे देश के लिए कुछ नया न होता। वृहदारण्यक (श) में उक है-