पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/६६७

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que "यदूर्व दिवो यदवाक् पृथिव्या यदन्तरा द्यावापृथिवी इमे, यद्भूतं च भवच्च भविष्य- च्चेत्याचक्षते, श्राकाश एव तदोतं च प्रोतं चेति । ) किन्तु इससे एक दूसरी कटिनाई दूर न होती । कठिनाई यह थी कि एक विश्व के भीतर भविष्यत् , वर्तमान और भूत इन तीन कालों को कैसे स्थान दें। काल की तहें मानने में यह कठिनाई थी कि इसका विरोध लोकों के एक तुल्य देशान्तर-कर्पण से होता था। इसलिए इसके अतिरिक्त कि वह भविष्यत् और भूत धर्म को अदेशस्थ मानें, वह कुछ और कर नहीं सकते थे। किन्तु कठिनाई का यह हल केवल आंशिक था, और मुख्य प्रश्न अर्थात् भविष्यत् , वर्तमान और भूत धर्मों के भेद के प्रश्न का उत्तर देना अभी बाकी था। वैभापिकों की दृष्टि की सीधी-सादी व्याख्या इस प्रकार हो सकती है---प्रत्येक धर्म स्वलक्षण का धारक है, और यहीं उसकी स्वक्रिया (वृत्ति, कारित्र, स्वभाग ) भी है । इस संबन्ध पर अभिधर्म की व्याख्याएँ आश्रित हैं। धर्म के स्वभाव ( लक्ष्य) की व्याख्या उसके कारित्र (स्वक्रिया, स्वलक्षण ) से होती है। कारिता सिद्धान्त यद्यपि प्रत्येक धर्म का सदा अपना कारित्र होता है, तथापि उसका कारि एक विशेष क्षण में ही प्रकट होता है, और जब वह अपना कारित्र समाप्त कर लेता है, तो सदा के लिए, बन्ध्य हो जाता है। यही क्षण वर्तमान कहलाता है, और इस प्रकार हम कह सकते हैं कि भविष्यत् धर्म वह है, जिन्होंने अभी अपने कारित्र को व्यक्त नहीं किया है, और भूत धर्म वह है जो अपना कारित्र व्यक्त कर चुके हैं। इसी प्रकार का विचार महा- विभाषा (पृ. ३६३ सी) में पाया जाता है:- प्रश्न-~~-कालाव का भेद किस पर अाश्रित है ? उत्तर- कारित्र पर । जिन संस्कृत धर्मों का कारित्र अभी नहीं है, वह भविष्यत् है। जो संस्कृत धर्म इस क्षण में कारित्र से समन्वागत है, वह वर्तमान कहलाते हैं; और जिनका कारित्र विनष्ट हो चुका है, वह भूत कहलाते हैं। श्रथवा जब रूप का प्रतिघत्व नहीं होता, तब यह भविष्यत् है; जब वह इस क्षण में प्रतिघात करता है, वह वर्तमान है और जब इसका प्रतिधत्व समाप्त हो चुका है तो इसे भूत कहते हैं । यह सिद्धान्त देखने में तो बड़ा सरन मालूम होता है, किन्तु इससे वास्तव में बड़ी उल- झन पड़ गई । यदि हम यह स्वीकार करते हैं कि केवल वही धर्म वर्तमान हैं, जो इस क्षण स्वक्रिया को व्यक्त कर रहे हैं, तो उस चक्षु के लिए हम क्या कहेंगे जो निद्रा में है अथवा जिसका प्रतिबन्ध अन्धकार है। यह वर्तमान है, किन्तु यह अपना कारित्र नहीं करते, वह प्रकाश नहीं देते। इसलिए कारित्र की कोई दूसरी व्याख्या चाहिये । वास्तव में हम एक दूसरी दृष्टि ले सकते है, जिसके अनुसार किसी धर्मविशेष की स्त्रक्रिया की अभिव्यक्ति उसी धर्म की क्रिया नहीं है, किन्तु दूसरे पूर्ववर्ती धर्मों की है, जिससे उस धर्म का कारित्र हेतुभाव से निश्चित होता है। अतः किसी धर्म का वास्तविक कारित्र इसमें है कि वह भविष्यत् धर्मों को