पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/६६८

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चौद्ध-धर्म-पर्शन अपनी स्वक्रिया अभिव्यक्त करने के लिए विवश करे। हीनयान के अभिधर्म में इसके छः प्रकार वर्णित हैं:-

-१. सहभू-कारण, २. समनन्तर-कारण, ३. सभाग-कारण, ४. सर्वत्रग-कारण,

५. विपाक-कारण, ६. अधिपति-कारण । यदि जीवन-प्रवाह में चतुरिन्द्रिय व्यक्त होता है तो (१) यह संस्कृत लक्षणों का सहभू-कारण है; (२) आगे जानेवाले सब चक्षुधर्मों का ( नो एक ही चक्षु की मिथ्या एकता का भान कराता है ) सभाग-कारण है; ( ३ ) अन्य ऐसे सब धर्मों का अधिपति-कारण है, जिनकी उत्पत्ति में यह बाधक नहीं है; संक्षेप में यदि कहे तो कहना होगा कि इस विचार में धर्म का कारित्र स्वकारित्र नहीं रहता, किन्तु उसका हेतुभावावस्थान, उसका फलोत्पादन-सामर्थ्य हो जाता है। तीन काल के भेद को स्थिर करने के लिए कारित्र के इस नये अर्थ को कुछ और नियन्त्रित करने की आवश्यकता है। ऐसे उदाहरण हैं जहाँ एक धर्मविशेष बहुकाल के पश्चात् फल देता है, यथा अतीत काल का फलदान कारित्र इष्ट है । ( अतीतस्यापि हि फल- दान-कारित्रमिप्यते--यशोमित्रकृतव्याख्या, पृ० १७८ )। फलाप-शकि और कारित्र उस क्षण में जब कि कर्म-हेतु निवृत्त हो चुका है, और फल की उत्पत्ति भी प्रारंभ नहीं हुई है, सामर्थ्य रहता है । क्या हम यह स्वीकार करें कि एक अतीत कर्म तब तक वर्तमान रहता है, जब तक कि यह अपना फल प्रदान नहीं करता ? इन कठिनाइयों का परिहार करने के लिए वैभाषिक निम्नलिखित सिद्धान्त का निर्माण करते हैं : छः कारणों की क्रिया की प्रणाली इस पर निर्भर करती है कि सन्तान में फल-दान उसी क्षण में होता है, अथवा समनन्तर क्षण में अथवा किसी के क्षण में । सहभू और समनन्तर कारण केवल प्रथम प्रकार से संबद्ध है; समाग और सर्वत्रग कारण द्वितीय या तृतीय प्रकार से संबद्ध है, तथा विपाक कारण केवल तृतीय प्रकार से संबद्ध है । (अभिधर्मकोश, द्वितीय कोश- स्थान, पृ० २६३ श्रादि)। अतः इसकी दो अवस्थाएं हैं--(१) श्राक्षेप, जिसे फलग्रहण भी कहते हैं। (२) फल-दान जिसे वर्तमानीकरण कहते हैं । प्रत्येक धर्म जिस क्षण में वर्तमान होता है, और अपना कारित्र करता है, उस क्षण में मानों वह अपने भविष्यत् फल का ग्रहण और आक्षेप करता है। कमी-कमी श्राक्षेप और दान दोनों श्रवस्थाएं एक दुसरे से भिन्न होती है, किन्तु जब एक धर्म का फलाक्षेप और फल-दान एक या दो समनन्तर क्षण में होते हैं, तो श्राक्षेप और दान एक में मिल जाते हैं । तथापि इन दोनों क्षयों का भेद अवश्यमेव होता है। क्योंकि केवल आक्षेप ही यह निर्णय करता है कि एक धर्म भविष्यत् से वर्तमान में प्रवेश करेगा या नहीं। अभिधर्मकोश (कोशस्थान २, पृ. २६३) उक्त है-"धर्म चाहे भविष्यत् , वर्तमान या भूत हो सदा रहता है। हमारा सिद्धान्त है कि यह उस क्षण में फल-ग्रहण या फलाक्षेप करता है, जिस क्षण में वर्तमान होकर यह एक फल का हेतु या बीज होता है।"