पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/६७०

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बौद-धर्मदर्शन

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सौत्रान्तिक 'देवविचेष्टित' कहकर इसका उपहास करते हैं कारित्रं सर्वदा वास्ति, सदा धर्मश्च वपर्यते । धर्मान्नान्यच कारित्रं व्यक्तं देव विचेष्टितम् ॥ (अभिधर्मकोश, १५७) किन्तु संघभद्र (न्यायानुसार, ६३३ सी) इसका कड़ा प्रतिवाद करते हैं । 'यह उपहास अनुचित है, क्योंकि बुद्ध भगवान् स्क्ष्यं भी शिक्षा देते हैं- तथागत लोकोत्तर है, और नहीं है। प्रतीत्यसमुत्पाद की धर्मता है, और यह नित्य नहीं है। क्या इसके लिए बुद्ध भगवान् का भी उपहास किया जायगा ? हम मानते हैं कि धर्मों का सदा अस्तित्व है, और साथ ही साथ हम यह भी मानते हैं कि धर्म नित्य नहीं हैं। इस सिद्धान्त की श्रापकी श्रालोचना निराधार है, क्योंकि 'नित्य' और 'अनित्य इन दो का व्यवहार दो भिन अर्थों में हुआ है। इसलिए बुद्ध का उपहास नहीं करना चाहिये । क्या इसमें भी ऐसा ही नहीं है । धर्म नित्य वर्तमान है, किन्तु धर्म-भाव बदलता है । जब संस्कृत धर्म त्रिकाल में संक्रमण करते हैं, तो वह अपना स्वभाव नहीं खोते और जो कारित्र होता है, वह प्रत्ययों पर निर्भर करता है। उसकी उत्पत्ति के समनन्तर ही कारित्र अवरुद्ध हो जाता है। श्रतः हमारा सिद्धान्त है कि धर्म नित्य है, किन्तु धर्मभाव अनित्य है । यह क्यों आपका उपहास है कि यह देवविचेष्टित है? संघभद्र न्यायानुसार, (६३३ बी० ) में वैभाषिक सिद्धान्त का यह सामासिक वर्णन देते है फलाक्षेप की अवस्था में सब संस्कृत धर्म 'वर्तमान' कहलाते हैं, फलाक्षेप की इस अवस्था का पूर्व और उत्तर दोनों में अभाव है । इस पूर्व और उत्तर अभाव के अनुसार त्रिकाल का भेद व्यवस्थित होता है। भूत और भविष्यतू का अस्तित्व वर्तमान के समान ही है । संक्षेप में यद्यपि सर्व संस्कृत धर्मों का स्वभाव सदा एकसा रहता है, तथापि सामर्थ्य भिन्न है । इस प्रकार यद्यपि त्रिकाल का स्वभाव सदा एक है तथापि उनके कारित्र में भेद होता है। ऊपर जो प्रमाण एकत्र किये गये हैं, उनसे स्पष्ट है कि वैभाषिक धर्म के दो श्राकार की शिक्षा देते हैं। यह भेद दो भिन्न अायतन या दो मिन धर्मों का सा नहीं है । कारिन स्वभाव का परिशिष्ट नहीं है, यह द्वितीय धर्म नहीं है, और न धर्म का द्वितीय स्वभाव ही है। यह धर्म अर्थात् स्वलक्षण भी नहीं है। जैसा तत्वसंग्रह से मालूम होता है, इस दृष्टि का स्पष्ट प्रत्याख्यान संघभद्र ने किया था। कारित्र फलाक्षेप-शांत, और स्वकारित्र स्खलक्षण का मेद मौलिक है-सप्रतिघल्य आदि के रूप में स्वलक्षण धर्म के संपूर्ण स्वभाव को व्यक्त करते हैं, और इसीलिए सप्रतियत्व से समन्वागत धर्म कभी अप्रतिष नहीं हो सकता । इसके विपरीत फलाक्षेप-शक्ति कादाचित्क है। दूसरे शब्दों में वैमाधिक सिद्धान्त एक प्रकार के भेदामेदवाद की शिक्षा देता है, जिसके अनुसार स्वभाव और कारित्र का संबन्ध भेदाभेद का है। विग-आकाशवाद कालवाद की समीक्षा करते हुए हमने ऊपर कहा है कि कालवाद और दिग्वाद दोनों में समानता पाई जाती है। जो काल को द्रव्य-विशेष मानता है, वह दिक् को भी द्रव्य-विशेष