पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/६७१

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विध अध्याय मानेगा, और जो बाह्य जगत् के काल-प्रवाह का वहन श्राभ्यन्तरिक जगत् में करेगा वह वास जगत् में अर्थों का देशस्थ होना स्वीकार नहीं करेगा। दिक् से यह दो भाव भारतीय दर्शन के इतिहास में पाये जाते हैं । बहुत प्राचीन काल में दिक् का भाव वस्तुव्यापी और अपेक्षया स्थूल था। पीछे से दिक् को एक द्रव्य-विशेष, जो अतीन्द्रिय और अनन्त है, मानने लगे। शब्द के स्वभाव को न समझ सकने के कारण भारतीयों ने आकाश द्रव्य की कल्पना की । यह सर्वगत और नित्य है। इसका अन्यथात्व नहीं होता और यह शब्द का प्राश्रय है। यह कल्पना उपनिषदों में भी पाई जाती है। उस समय भी दो श्राख्याओं का व्यवहार होता था--दिक् और अाकाश । श्राकाश का लिङ्ग शब्द है । यह शब्द का समवायिकारण है। श्राकाश वह द्रव्य है, जिससे शब्द की अभिनिष्पत्ति होती है। दिक् वह शब्द-विशेष । जो प्रदेश का निमित्तकारण है। दिक संबन्धी यह दोहरा विचार शब्द पर आश्रित है। मीमांसकों के अनुसार शब्द एक, नित्य द्रव्य-विशेष है, जिसकी अभिव्यक्ति उस वाक् में होती है, जो हम सुनते हैं, किन्तु विसका अदा और सर्वत्र अस्तित्व है । मीमांसकों का उद्देश्य वेदों का नित्यत्व सिद्ध करना था, जो इनके अनुसार न सूट हुए, न ईश्वर द्वारा अभिव्यक्त हुए; जो अपौरुषेय है, किन्तु सृष्टि की उत्पत्ति के पूर्व से जो स्वतःप्रमाण है। कणाद इस मत का खएउन करते हैं, और सिद्ध करते हैं कि शब्द एक गुण है, श्राकाश का गुण है। कुमारिल उत्तर देते हैं कि यदि पूर्वपक्ष की प्रतिज्ञा है कि शब्द आकाश का गुण है, तो इसके न कहने का कोई कारण नहीं है कि यह दिक् का गुण है । कुमारिल कहते हैं कि- "दो नित्य, व्यापी और सर्वगत द्रव्यों का अस्तित्व मानना निष्प्रयोजनीय है, और जो अाकाश के लिए कहा जा सकता है, वह दिक् के लिए भी कहा जा सकता है । वह कहते हैं कि दिक् एक और व्यापी है, और अाकाश को भी व्याप्त करता है। जो दिग्भाग श्रोत्र-शध्कुली को घेरता है, वह श्रोत्रेन्द्रिय है; यथा वैशेषिकों के अनुसार श्रोत्रेन्द्रिय नभोदेश है । वैशेषिकों के सब प्रमाण हमारे वाद में घटते हैं । हमारे अनुसार श्रोत्रेन्द्रिय दिग्भाग है । अन्तर इतना ही है कि हमारे वाद का अाधार श्रुति है। वह दिग द्रव्य जो कम या अधिक श्रोत्र-विवर में श्राबद्ध है, हमको श्रोत्रेन्द्रिय के रूप में व्यक्त होता है।" दूसरों के अनुसार दिक् और श्राकाश दो पृथक् द्रव्य हैं। इनमें अन्तर केवल इतना है कि कई प्रस्थानों के अनुसार शन्द' का आश्रय इनमें से एक ही है । उपनिषदों में भी यह दोनों श्राख्याएँ पाई जाती हैं। उनके अनुसार श्राकाश एक अनन्त द्रव्य है । कमी यह द्रव्य पांच महाभूतों में परिगणित होता है, जिनसे सृष्टि की उत्पत्ति होती है। कभी इसे सृष्टि का प्रथम तत्व निर्धारित किया गया है, जिससे शेष तत्वों की उत्पत्ति होती है। ब्रम से अाकाश, श्राकाश से वायु, वायु से तेज, तेज से जल, जल से पृथिवी,