पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/६७३

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जल, जल दोनों का समुदाय मुष्ट होता है। इस वाद के नाम से ही स्पष्ट है कि यह पंचभूत की सत्ता मानता था। अर्थात् पृथिवी, अप् , तेज और वायु के अतिरिक्त यह श्राकाश या दिक् भी मानते थे। इसी आधार पर यह अन्य वादों से भिन्न था। अतः श्राकाश को तत्वों में गिनें या न गिनें, यह शास्त्रार्य का विषय हो गया। कुछ ऐसे वाद है, जो केवल चार भूत मानते हैं । वेदान्त के अनुसार श्राकाश की उत्पत्ति ब्रह्म से हुई। यह ब्रह्म का प्रतीक है, क्योंकि यह अनन्त, नित्य, अपरिवर्तनशील तत्व है। किन्तु इसका ब्रह्म से तादात्म्य नहीं है, क्योंकि बझ से इसकी उत्पत्ति होती है । पुनः आकाश से वायु, वायु से तेज, तेज पृथिवी की सृष्टि हुई है। इन अतिसूक्ष्म द्रव्यों के स्थूल द्रव्यों में परिवर्तन होने से लोक की सृष्टि होती है। इसके विपरीत स्थूल द्रव्यों के सूक्ष्म द्रव्यों में परिवर्तित होने से प्रलय सिद्ध होता है । यहाँ अाकाश एक द्रव्य है, 'क अनन्त द्रव्य है भूतों में से एक है । मीमांसकों के अनुसार भी दिक् एक द्रव्य है, सर्वगत है, उन अर्थों से स्वतन्त्र है, जो उसमें निवास करते हैं; किन्तु यह पर्व देशों में दिखाई देता है। मीमांसको के अनुसार दिग्वकाश वस्तुभूत है, जो भौतिक अर्थों के तिरोभाव के पश्चात् भी रहता है । साक्य के अनुसार श्राकाश पाँच महाभूतों में से एक है। शब्दतम्मान से आकाश की उत्पत्ति होती है, और आकाश का गुण शब्द है । अन्य महाभूतों के साथ यह महाभूत भी सर्ग की प्रवृत्ति में लगता है। यह मुख्यतः इसी भूत के कारण है कि प्रत्येक वस्तु का अव- काश होता है । किन्तु सांख्य-साहित्य में भी दोनों प्राख्याएँ पाई जाती हैं-(१)श्राकाश- अनन्त दिक् ; (२)दिक्-अर्थों का देशस्थ होना । माधव कहते हैं कि सांख्य उन वादों से सहमत हैं, जो सामान्य दिक् अर्थात् अनन्त दिक् और उस दिन में विशेष करते हैं, जो उपाधि- वश सान्त है । सान्त दिक काल से आबद्ध है। हमने ऊपर कहा है कि काल और दिक् भूतों के दो नित्य गुण है । काल और सान्त दिग्-द्रव्य (आकाश अवकाश ) अनन्त आकाश के उपाधिमात्र हैं। न्याय वैशेषिक सिद्धान्तों में दिक् ( अाकाश ) और काल का साधर्म्य बताया गया है। दोनों सर्व उत्पत्तिमान के निमित्त हैं। न्यायसूत्रों में श्राकाश ( दिक् ) की व्याख्या नहीं पाई बाती, और न कहीं अन्यत्र काल का लक्षण बताया गया है। कणाद के सूत्रों में (२।२।१०) दिक् वह द्रव्य है, जिसके कारण एक मूर्त द्रव्य दूसरे के समीप या दूर है । इस द्रव्य का प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं होता, किन्तु उसके लिङ्ग से उसका अनुमान हो सकता है । दैशिक श्रयों की सन्तति का कोई कारण होना चाहिये, बो कालवती भावों की परम्परा के सदृश हो । यह कारण एक नित्य द्रव्य है, यह उसी प्रकार सिद्ध होता है। जैसे काल और वायु का द्रव्यत्व और नित्यत्व सिद्ध होता है । दिक से स्वतन्त्र क आकाश है, वह भी नित्य और विभु द्रव्य है। श्राकाश दिक् से भिन्न है, क्योंकि यह शब्द का आदान है । अाकाश सत्र को व्याप्त करता है, और उसके अस्तित्व का अनुमान केवल अपने गुण से होता है। प्रशस्तपाद वैशेषिक