पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/६७६

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बोड-धर्म-दर्शन देखा जाता । इन दो के अतिरिक्त श्राफाश तृतीय प्रकार का अभाव है। बौद्ध इसीलिए, श्राकाश को द्रव्यविशेष नहीं, किन्तु अभावमात्र मानते थे । आस्तिक-दर्शन उसे वस्तुभूत मानते थे । अाकाश-परीक्षा में नागार्जुन आकाश को भाव मानकर उसको असंभव सिद्ध करते हैं। उसी प्रकार वह श्राकाश को अभावमात्र भी प्रसिद्ध करते हैं। नागार्जन भाद-अमाव दोनों का प्रत्या- ख्यान करते हैं। केवल श्राकाश ही नहीं बल्कि अन्य सब द्रव्यों का भी । सामान्यतः वह प्रत्येक ज्ञान की शून्यता सिद्ध करते हैं | वाह्य और श्राभ्यन्तर दोनों लोकों के सब भावों का विवेचन कर वह अनवस्था दोष दिखा कर उनकी विरुद्धता दिखाते हैं, तथा ज्ञेय-लोक के समुदाय की शल्यता सिद्ध करते हैं। यद्यपि नागार्जुन आकाश की समस्या हल नहीं करते हैं, तथापि उनका विचार विज्ञान- वादी विचार की पूर्वावस्था है। इस प्रश्न को उठाकर कि हमारे मावों का वस्तुत: कोई बालंबन है या नहीं, नागार्जुन कहते हैं कि यह भावधर्म हैं जो अनालंबन है । विज्ञानवादी दृष्टि को अार्यासंग, वसुबन्धु और दिङ्नाग ने विकसित किया । धर्मकीर्ति ने इसमें वृद्धि की । इनका विचार वसुबन्धु के विचार से कुछ भिन्न है। इनके अनुसार भी भाजन-लोक प्रवृत्ति-विज्ञान से बना है। अाकाश इन प्रवृत्ति-विधानों का एक प्राकार- विशेष है। धर्मकीर्ति प्रत्येक विज्ञान में, तथा प्रत्येक वस्तु में, तीन प्रकार के गुण मानते हैं—देश, काल और स्वभाव । धर्मकीर्ति श्राकाश और काल दोनों का समानरूप से विवेचन करते हैं । वह देश और आकाश दोनों शब्दों का व्यवहार करते हैं। अर्थ के देशस्थ होने को वह सदा 'देश' कहते हैं, और श्राकाश को अनादि, अनन्त, अविपरिणामी बताते हैं । अपने ग्रन्थ में उन्होंने कहीं अाकाश का विचार नहीं किया है, किन्तु इन दोनों शब्दों का प्रयोग उसी अर्थ में करते हैं, जिस अर्थ में इनका प्रयोग बास्तिक दर्शनों में होता है। दिक् का अर्थ केवल अर्थ का देशस्थ होना है। यह शद विज्ञानवादी विचार से पूरी तरह मिलता है, किन्तु दिङ्नाग और धर्माति अनन्त अाकाश का बार बार उल्लेख करते हैं। साथ ही साथ परार्थानुमान का उल्लेख है, जिसके द्वारा वाक् की अनित्यता सिद्ध हो सकती है। जिसका अस्तित्व है, वह अनित्य है । बाक् का अस्तित्व है, अतः वह अनित्य है । बाह्य जगत् अनित्य है । प्रत्येक क्षण का विनाश होता है । आकाश नित्य है । इसीलिए. उसका अभाव है। प्रमाण बौद्धधर्म में भिन्न भिन्न प्रवृत्तियां पाई जाती हैं । बहुधर्मवाद, विज्ञानवाद और शूल्यवाद की प्रवृत्तियां स्पष्ट हैं। शून्यवाद ऐसी प्रवृत्ति है जो, बाह्य जगत् की शुन्यता और ज्ञान की नितान्त अनिश्चितता मानता है। इन मौलिक सिद्धान्तों ने बौद्ध-दर्शन के स्वभाव को पूर्व ही विनिश्चित कर दिया । यह सांख्य और वेदान्त के समान विश्व को समझाने के लिए, किसी परम तत्व का निर्माण