पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/६७८

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समाप्त हो जाता है । यह वह बिन्दु है, जहाँ पुरुष का कारिन होता है। इसे अर्थ-क्रिया-क्षम वस्तु कहते हैं, और जो क्रिया इस वस्तु का अधिगम करती है, वह सफल पुरुषार्थ है। सम्यक्- ज्ञान प्रापक ( एफिकेशियस ) शान है। इस प्रकार हमारे ज्ञान की प्रामाणिकता और उसकी व्यवहार क्षमता के बीच एक संबन्ध स्थापित है। पुरुष को विशान हठात् प्रवर्तित नहीं कर सकता, अतः शान कारक-कारण नहीं है। केवल लोग अर्थ प्राप्ति के निमित्त अर्थ-क्रिया समर्थ वस्तु के प्रदर्शक ज्ञान की खोज करते हैं, इसलिए. सम्यक्-ज्ञान अर्थ-क्रिया-समर्थ वस्तु का प्रदर्शक है । जिस ज्ञान से पहले अर्थ अधिगत होता है, उसी से पुरुष प्रवर्तित होता है, और अर्थ प्रापित होता है । उस अर्थ के विषय में दूसरे ज्ञान का क्या काम है । इसलिए अनधिगत विषय प्रमाण है । जब अर्थ प्रथम अधिगत होता है, तब ज्ञान होता है। एक ज्ञान की पुनरावृत्ति प्रत्यभिज्ञा है । इसे शान का स्वतंत्र ज्ञापक नहीं मानेंगे । किसी अधिगत विषय का अनुस्मरण राग या द्वेष का कारण होता है, किन्तु राग-द्वेष या स्मृति को ज्ञान का कारण नहीं मानते । जब हम सर्व प्रथम अर्थ का अधिगम करते हैं तो उसी क्षण में ज्ञान होता है। इसके पश्चात् कल्पना ( या विकल्प ) के द्वारा वस्तु के आकार का निर्माण होता है । यह ज्ञान का कारण नहीं है । यह प्रत्यभिशा है, यह सविकल्पक अप्रमाण है मीमांसकों की भी यही व्याख्या है, अर्थात् प्रमाण अनधिगत अर्थ का अधिगन्ता है। किन्तु उनके मत में अर्थ और प्रमाण दोनों कुछ काल के लिए श्रवस्थान करते हैं। नैयायिकों के अनुसार प्रमाण शान का साधकतम कारण है। यह कारण इन्द्रिय-विज्ञान अनुमानादि हैं। इनका प्रत्यक्ष सविकल्पक है। बौद्धों के अनुसार श्रर्थ बाणिक हैं, और वह इन्द्रिय तथा कल्पना दोनों में विशेष करते हैं । उनके अनुसार यह दो ज्ञान के उपकरण है। इन्द्रिय अधिगत करता है। कल्पना निर्माण करती है । इसलिए ज्ञान का प्रथम क्षण सदाहन्द्रिय-विज्ञान का क्षण है । यह अविकल्प है, किन्तु विकल्पोत्पत्ति की शक्ति रखता है । अर्थ का अधिगम होने पर प्रथम क्षण के पश्चात् अर्थ की आमा स्फुट होती है । यदि लिङ्ग द्वारा वह अनुमित होता है, तो लिङ्ग अधिगम के प्रथम क्षण को उत्पन्न करता है, जिसके पश्चात् लिंग के स्फुटाभ और तत्संप्रयुक्त अर्थ के अस्फुट श्राकार की उत्पत्ति होती है। किन्तु दोनों अवस्थानों में अधिगम का केवल प्रथम क्षण सम्यग्-शान का कारण होता है। अतः प्रमाण एक क्षण है, और यही क्षण सम्यग्-शान का वस्तुतः कारण है। प्रमाणों की सत्यता को परीक्षा जब सत्य की परीक्षा केवल अनुभव से होती है, तब यह प्रश्न स्वभावतः उठता है कि शान के जो कारण है, वह उसके सम्यक होने के भी कारण हैं, अथवा शान का कारण एक है। और उसकी सत्यता को प्रमाणित करने के लिए चित्त को दूसरी क्रिया करनी होती है ?