पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/६८

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(4x) सलगा। 'प्राणियों के सकड़ो दुःखो को स्वयं भोग करके उनके दुःखों को हरण करने की कामना करने वाले को और उसे ही अपना सुख सौख्य समझाने वाले को बोधिचिच का परित्याग कमी नहीं करना चाहिये। बोधिचित्त' चित्त का वह संकल्प है, बिससे संसार के समस्त मात प्राणियों का उदार होगा । 'रकादि से रक्षा करने के लिए पृथ्वी को चर्म से प्राच्छादित करना उचित है, परन्तु यह संभव नहीं है, क्योंकि इतना चर्म कहाँ मिलेगा, यदि मिले भी तो आच्छादन असंभव है, किन्तु उपाय के द्वारा कंटकादि से रक्षा हो सकती है, क्योंकि जूते के चमड़े से सब भूमि अच्छादित हो पाती है। इसी प्रकार व्यक्ति अनन्त बाह्य भावों का निवारण एक चित्त के निवारण से कर सकता है। शीलका करुणा' में विकास, कुशल बुद्धि का प्रया' में विकास और इन दोनों के अभेद से व्यक्तित्व का निर्माण, बोसों की इस नीवनदृष्टि से प्राचार्य की बात ही प्रभावित थे । ब्यचिव की शन्यता और समाज की सत्ता का बौद्ध सिद्धांत भी उनके चितन का विषय सदा बना रहा। प्राचार्य जी कहा करते थे कि नैतिकता और आध्यात्मिकता की जो तर्कसमत और हृदयमाही व्याख्या बौद्धों ने की है उससे व्यक्ति में अन्ध-परंपरा से विमुक्त निरीक्षण की शक्ति प्राती है। प्राचायची की नैतिकता इसी मुदृद्ध दार्शनिक व्याख्या के आधार पर सुपुष्ट हुई। इसी के आलोक में उन्होंने प्राच्य प्रतीच्य विभिन्न नैतिक व्याख्याओं का पालोचन किया था और उनके मस्तिष्क में भारतीय संस्कृति का एक अपूर्व चित्र बना था। इस सांस्कृतिक प्राधार पर समाववाद के अध्ययन ने प्राचार्य नरेन्द्रदेव को समाजवाद की नैतिक व्याख्या करने के लिए बाध्य किया। प्राचार्यजी की वह सांस्कृतिक प्रतिभा भारतीय समाजवाद में भी प्रतिफलित हुई। यही कारण है कि वह समाजवाद और भारतीय संस्कृति दोनों के समान रूप से मूर्धन्य व्याख्या- कार हुए। उन्होंने मार्क्सवाद से भारतीय संस्कृति या नैतिकता का विरोध नहीं, अनिवार्य समन्वय स्थापित किया। इसीलिए, न्हें सर्वोदय या भूदान की नैतिकता मार्सवाद से रिगा नहीं सकी और न स्वोदय को बीवन-दर्शन के रूप में स्वीकृति दिला सकी। इन समस्त दार्शनिक एवं सांस्कृतिक अध्ययनों का पर्यवसान एक नयी संस्कृति के निर्माण में है, प्राचार्यश्री के 'भवसंस्कृति-संघ' की कल्पना उसका फलितार्थ था। घोर गबनीतिक अस्तव्यस्तता के बीच और रोगों के मार्मिक प्रहारों के बीच भी उ बाब समय मिला बैवदर्शन का अपना प्रिय अध्ययन प्रारंभ कर दिया। वे चाहते थे कि हिन्दी में बैदर्शन के अध्ययन की अपेचित सामग्री शीघ्र से शीघ्र प्रस्तुत कर दें। इसके लिए गवेषणात्मक निबन्धों के अतिरिक्त कुछ प्रामाणिक प्रथों का संक्षेप अनुवाद भी प्रावश्यक समझते थे। इसी दृष्टि से उन्होंने हिन्दी में बोवधर्म और दर्शन नाम से यह महत्वपूर्ण ग्रंथ लिखा। पांच खण्डों और २० अध्यायों के इस ग्रंथ में स्थविरवाद की साधना, धर्म और दर्शन, महायान-धर्म और दर्शन, महायान की उत्पत्ति और विकास, उसका साहित्य और सापना, बौदर्शन की सामान्य मान्यताएँ, प्रतीत्यसमुत्पादवाय, नव-भगवाद, अनीश्वरवाद, कर्मवाद, निर्वाण, बौदपर्यन के माति