पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/६८०

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वस्तु-मिभित । वस्तु के भी दो प्रकार है- शुरु और परिकल्प-मिश्रित । एक वस्तु-सत् क्षण स्वलक्षण है। यह परमार्थ-सत् है। दूसरा स्खलक्षण के अनन्तर विकल्प-निर्मित श्राकार है। बब वस्तु-प्रतिबन्ध पारम्प येण होता है, तब अर्थ-संवाद होता है, यद्यपि यह अनुभव परमार्थ सत् की दृष्टि से प्रान्त है । यह पारंपर्येण सत् है, प्रत्यक्षण नहीं। प्रमाण का विम जिस प्रकार वस्तु-सत् द्विविष है, उसी प्रकार प्रमाण भी द्विविध है। प्रमाण प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष है। यह परमार्थ-सत् के ज्ञान का कारण है, या संवृति-सत् के ज्ञान का कारण है। प्रत्यक्ष-प्रमाण इन्द्रिय व्यापार से उत्पन्न होता है। अप्रत्यक्ष विकल्प से । प्रथम प्रतिमास है, दूसरा कल्पना है । प्रथम अर्थ का ग्रहण करता है, दूसरा उसी की कल्पना करता है (विकल्पयति)। वास्तव में 'प्रहण' नहीं होता, किन्तु इस शब्द का व्यवहार ज्ञान के प्रथम क्षण को पहीत अर्थ के विकल्प से विशिष्ट करने के लिए होता है। यह क्षण असाधारण तत्व है, अत: यह अनभिलाप्य है। नाम, अमिशा किसी एकत्व की होती है, जिसमें देश, काल और गुण का संयोग होता है। यह एकत्व एक विकल्प है, और बुद्धि की जिस प्रक्रिया से इसका निर्माण होता है, वह प्रतिमास नहीं है। धर्मोत्तर कहते है कि प्रमाण के विविध विषय है-ग्राह्य और अध्यवसेय (पृ०१५-१६)। प्राय और अध्यवसेय भिन्न-भिन्न हैं । प्रत्यक्ष का क्षण एक है । यह ग्राह्य है। दूसरा अध्यक्सेय प्रत्यक्ष-बल से उत्पन्न निश्चय है । यह क्षण सन्तान है। सन्तान ही प्रत्यक्ष का प्रापणीय है। क्षण की प्राप्ति अशक्य है। बौद्धों के अनुसार दो प्रमाण है, प्रत्यक्ष और अनुमान । वैशेधिक भी दो ही प्रमाण मानते हैं, यद्यपि उनके लक्षण और उनकी व्याख्या भिन्न है । बौद्ध आतवचन को प्रमाण में नहीं गिनते । नैयाथिकों का उपमान और अर्थापत्ति बौदों के अनुमान के अन्तर्गत है। शान इन्द्रिय-व्यापार से होता है, और विकल्प-बल से श्राकार का उत्पाद होता है। प्रत्यक्ष में अर्थ का श्राकार विशदाभ होता है। अनुमान में लिक द्वारा अर्थ का अस्फुट ज्ञान होता है । अग्नि के संनिधान में अग्नि का प्रत्यक्ष शान होता है, और यदि अग्नि दूर है, और धूमलिक के दर्शन से ज्ञान होता है तो यह अनुमान है। एक में प्रत्यक्ष प्रकृष्ट है, दूसरे में विकल्प का प्रकर्ष है। बौद्धों का वाद 'प्रमाण-व्यवस्था' कहलाता है, जब कि दूसरों का वाद 'प्रमाण-संप्लव' कहलाता है। प्रमाण-संप्लव के अनुसार प्रत्येक प्रर्य का ज्ञान प्रत्यक्ष और अनुमान दोनों से हो सकता है । बौर-वाद में प्रत्यक्ष और अनुमान दोनों की इयत्ता की व्यवस्था है। एक दूसरे चेत्र में प्रवेश नहीं करता। इस प्रकार हम देखते हैं कि बोब-दर्शन की रष्टि श्रालोचनात्मक है। बौर-वर्शन में प्रमाण दो ही है। दोनों ही इन्द्रिय-चन्य अनुभव का समतिक्रमण नहीं कर सकते। बो अतीन्द्रिय है, वह जान का विषय नहीं है। सब अतीन्द्रिय अर्थ, बो देश, काल, स्वभाव से विका , अनिश्चित है । अतीन्द्रिय क्षेत्र में विकल्प से विविध निर्मित होगा वो विरुद्ध होगा।