पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/६८१

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बौद्ध धर्म में बुद्ध को सर्वज्ञ कहा है, किन्तु अतिन्द्रिय-सर्वशत्व का होना या न होना सन्दिग्ध है। अतः यह अनेकान्तिक है। धर्मात्तर कहते हैं कि जिस अनुमान का लिंग-रूप्य अागमसिद्ध है, उसका श्राश्रय अागम है । ये युक्तियाँ अवस्तु-दर्शन के बल से प्रवृत्त होती है, अर्थात् विकल्पमात्र के सामर्थ्य से प्रवृत्त होती हैं। श्रागम के जो अर्थ अतीन्द्रिय है, अर्थात् जो प्रत्यक्ष-अनुमान के विषय नहीं है, यथा सामान्यादि उनके विचार में श्रागमाश्रित अनुमान की संभावना है। विपर्यस्त शास्त्रकार सत्-असत् स्वभाव का आरोप करते हैं । जब शास्त्रकार हो भ्रान्त होते हैं, तो दूसरों का क्या भरोसा; किन्तु यथावस्थित वस्तुस्थिति में इसकी संभावना नहीं है। भत्यक्ष ज्ञान के स्वरूप को हम कभी नहीं जानेंगे किन्तु हम उसे साक्षात् और परोक्ष में विभक्त कर सकते हैं । इसी विभाग के अधार पर ज्ञानमीमांसा का शास्त्र अाश्रित है । माक्षात् को हम इन्द्रिय-व्यापार और परोक्ष को विकल्प कह सकते हैं । श्रर्थ का साक्षात्कारी ज्ञान प्रत्यक्ष कहलाता है। प्रत्यक्ष निर्विकल्प है, सविकल्प नहीं है। यह वस्तु के स्वलक्षण का ग्रहण करता है । यह नामजात्यादि ( जाति, द्रव्य, गुण, कर्म, नाम) का ग्रहण नहीं करता । जात्यादि विकल्प है । निर्विकल्प प्रत्यक्ष जात्यादि से असंयुत है। यह कल्पना से अपोड़ । सविकल्प प्रत्यक्ष प्रत्यक्ष नहीं है, क्योंकि वह मन-इन्द्रिय द्वारा नात्यादि का विवेचन करके विषय का ग्रहण करता है । यह इन्द्रिय से वस्तु का पालोचन मात्र नहीं है। वस्तुमात्र का जो प्रथम संमुग्ध ग्रहण होता है, वही निर्विल्प प्रत्यक्ष है । यही शुद्ध प्रत्यक्ष है। पश्चात् मन द्वारा (नामस्मृति से) वस्तु के नाम का ज्ञान होता है । इसे प्रत्यक्ष नहीं कह सकते। यह इन्द्रियार्थ के सन्निकर्ष से जन्य नहीं है । यह इन्द्रिय व्यापार से उत्पन्न नहीं होता। अन्य मतों के अनुसार सविकल्प भी प्रत्यक्ष है, क्योंकि यह इन्द्रिय-व्यापार से जन्य है और इन्द्रिय-व्यापार उस समय भी उपरत नहीं होता जब सविकल्प का उत्पाद होता है, क्योंकि इसका अपरोक्ष-भास होता है । किन्तु बौद्ध कहते हैं कि यह कहना कि सविकल्प प्रत्यक्ष है और साथ ही साथ यह अपरोक्षावभास है, परस्पर विरोधी हैं। वस्तुसंशा का अवभास इन्द्रिय को नहीं होता। संशाकरण और प्रत्यभिशा की क्रिया वर्तमान अनुभव और अतीतानुभव के विषयों के एकीकरण से होता है। प्रत्यक्ष शान को अभ्रान्त होना चाहिये । प्रत्यक्ष ज्ञान तभी प्रमाण हो सकता है जब कि वह विपर्यस्त न हो। भ्रान्ति भी दो प्रकार की है-५.५ रिश्रम, जिसके अनुसार समी व्यावहारिक ज्ञान एक प्रकार का विभ्रम है और इ.प्रातिमासिकीभ्रान्ति । प्रत्यक्ष ग्राह्य- रूप (परमार्थसत् में) में अविपर्यस्त होता है। इन्द्रियाश्रित शान प्रत्यक्ष का केवल एक प्रकार है । एक दूसरा प्रत्यन है, जिसे मानस- प्रत्यक्ष कहते है। प्रत्येक प्रत्यक्ष शान में इसका एक क्षण होता है। यह इन्द्रिय शान के विषय