पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/६८४

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बौर-धर्म-परोन होता। चित्त की कोई अवस्था नहीं है, जिसमें यह संवेदन प्रत्यक्ष न होता हो । यदि हम नीलादि देखते हैं और साथ साथ सुखादि श्राकार का संवेदन होता है तो यह नहीं कह सकते कि यह सुखादि रूप नीलादि से उत्पन्न इन्द्रिय विज्ञान के तुल्य श्राकार है। किन्तु जब किसी बाल अर्थ यथा नीलादि का दर्शन होता है तो तुल्य काल में सुखादि श्राकार से किसी अन्य का संवेदन होता है। यह स्वात्मा की अवस्था का संबेदन है । वस्तुतः जिस रूप में प्रात्मा का वेदन होता है वह रूप प्रत्यक्ष का प्रात्म-संवेदन है। श्रतः रूपदर्शन के साथ साथ हम किसी एक अन्य वस्तु का अनुभव करते हैं, जो दृष्ट अर्थ से अन्य है, जो प्रत्येक चित्तावस्था के साथ होता है और जिसके बिना कोई चित्तावस्था नहीं होती। यह वस्तु स्वात्मा है । यह ज्ञान ही है। इसी से ज्ञान का अनुभव होता है। यह शान रूपवेदन प्रात्मा का साक्षात्कार हैं। यह निर्विकल्पक और अभ्रान्त है; अतः प्रत्यक्ष 1 तुखमा-इस प्रकार हम देखते हैं कि अन्य दर्शनों का प्रात्मा उपनिषदों में ब्रह्म का स्थान पाकर सांख्य में एक द्रव्य के रूप में माना जाता है । हीनयान में हम इसे विज्ञान-सन्तान के रूप में पाते हैं, जिसका कारित्र पठेन्द्रिय का है। बौद्ध-न्याय में इसका यह स्थान भी विलुप्त हो जाता है और यह प्रत्येक चित्तावस्था का साहचर्य करता है। प्रत्यक्ष पर अन्य भारतीय दर्शनों के विचार सांस्य प्रत्यक्ष वह विज्ञान है 'जो जिस यस्तु के संबन्ध से सिद्ध होता है उसी वस्तु के श्राकार को ग्रहण करता है [ मांख्यसूत्र (१८९) यत् संबन्धसिद्धं तदाकारोल्लेखि विज्ञानं तत्प्रत्यक्षम् ] । विज्ञानभिक्षु इस लक्षण का स्पष्टीकरण करते हुए कहते हैं कि प्रत्यक्ष वह बुद्धिवृत्ति है जो वस्तु को प्राप्त होकर उस वस्तु के श्राकार में परिणत होती है। वस्तु के सान्निध्य से ही बुद्धि- वृत्ति नहीं उत्पन्न होती, किन्तु केवल उसका विशेष श्राकार उससे उत्पन्न होता है। यह प्राकार बुद्धिवृत्ति में निहित है। प्रत्यक्ष होने के लिए एक वाह्य वस्तु का सन्निकर्ष बुद्धि को चाहिये। और बाह्य वस्तु के ज्ञान के लिए. इन्द्रिय-सन्निकर्ष चाहिये। सांख्यों के अनुसार बुद्धि का तम उसकी वृत्ति में अन्तराय है। जब उपात्त विषय में इन्द्रियों की वृत्ति के होने से यह तम अभिभूत होता है, तब अध्यवसाय ( जान ) होता है । ईश्वरकृष्ण प्रत्यक्ष का लक्षण इस प्रकार देते हैं:- "प्रतिविषयाध्यवसायो दृष्टम्" सांख्यतत्वकौमुदी, ५] पति मिझ इस लक्षण का भाग्य इस प्रकार करते हैं :-प्रथम प्रत्यक्ष का एक वास्तविक विषय होना चाहिये। यह संशय का व्यवच्छेद करता है । विषय बुद्धिवृत्ति को अपने श्राकार में परिणत करता है। प्रत्यक्ष के विषय बाह्य और श्राभ्यन्तर दोनों है, पृथिव्यादि स्थूल पदार्थ और सुखादि सूक्ष्म पदार्थ ।