पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/६८५

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पिंडमधार के ज्ञान समान पुनः विषय विशेष के प्रत्यक्ष के लिए इन्द्रिय विशेष की वृत्ति की आवश्यकता होती है। यह वृत्ति इन्द्रियार्थ-सन्निकर्ष के रूप में होती है। इससे अनुमान, स्मृत्यादि पराकृत होते हैं। पुनः इसके अतिरिक्त बुद्धिवृत्ति भी चाहिये । बुद्धि-व्यापार से विषय का निश्चित शान होता है। परिणाम स्वरूप अध्यवसाय अर्थात् निश्चित जान उत्पन्न होता है। वाचस्पति मिश्र कहते हैं कि बालेन्द्रिय वस्तु का अालोचन कर मन को समर्पण करता है, मन संकल्प कर अहंकार को समर्पण करता है, अहंकार अभिमति देकर बुद्धि को समर्पण करता है । बालेन्द्रिय मन और अहंकार यद्यपि परस्पर विरोधी है, तथापि भोग अपवर्ग रूप पुरुषार्थ के लिए इनकी एक वाक्यता सिद्ध होती है । बाह्य न्द्रियों की वृत्ति वस्तु का अालोचन-मात्र है। यह निर्विकल्पक शान है । सकि- कल्पक मन की उत्पत्ति है। जब वस्तु का अालोचन इन्द्रिय से होता है तब मन का संकल्प रूप व्या शर होता है । मन विशेषण-विशेध्यभाव से विवेचन करता है । "यह यह है, वह नहीं है" ( इदमेवम् , नैवम् )। पहले निर्विकल्पक ज्ञान होता है। यह बालमूक होता है। पश्चात् जात्यादि धर्मों से वस्तु का विवेचन होता है, समान असमान-जातीय का व्यवच्छेद होता है। यह मन का व्यापार है। यह सविकल्पक है। बब बाटे न्द्रिय से वस्तु का श्रालोचन कर मन द्वारा विशेषण-विशेष्यमाव का विवेचन होता है, तब अहंकार उस ज्ञान को स्वीकृत करता है । यहाँ मैं अधिकृत हूँ, मेरे लिए यह विषय है, मुझसे अन्य कोई यहाँ अधिकृत नहीं है, अतः मैं हूँ। यह जो अभिमान होता है उसे अहंकार कहते हैं। असाधारण व्यापार होने से इसे अहंकार कहते हैं । इस प्रकार जो पहले विषय का अवैयक्तिक ग्रहण था वह अहंकार से वासित होकर व्यक्तिगत अनुभव हो जाता है। जब मन से विवेचित होकर सविकल्पक ज्ञान अहंकार द्वारा अभिमत होता है, तब बुद्धि की अध्यवसायात्मक वृत्ति होती है । ज्ञात वस्तु के प्रति क्या कर्तव्य है, क्या प्रवृत्ति होनी चाहिये इस प्रकार का विनिश्चय, अध्यवसाय-बुद्धि का असाधारण व्यापार है। सांख्य के अनुसार बाह्य प्रत्यक्ष के लिए अन्तःकरण और बाह्येन्द्रिय का संयोग चाहिये । अन्तःकरण-बुद्धि, अहंकार और मन-एक स्वभाव के हैं। यह एक दूसरे पृथक् द्रव्य नहीं हैं। इन तीनों को मिला कर एक अन्तःकरण होता है । वृत्ति के तारतम्य के अनुसार यह तीन हैं। गौतम के अनुसार इन्द्रिय और अर्थ के सन्निकर्ष से उत्पन्न जो अव्यभिचारी शान है, वह प्रत्यक्ष है। यह दो प्रकार का है--प्रव्यपदेश्य और व्यवसायात्मक । वास्तव में इन्द्रिय का अर्थ से, इन्द्रिय का मन से और मन का प्रात्मा से संयोग होता है। किन्तु अन्तिम दो संयोग प्रत्यक्ष की विशेषता नहीं है। वह अनुमानादि प्रमाणों को भी सामान्य है। अतः प्रत्यक्ष के लक्षणों में इन संयोगों का उल्लेख नहीं है।