पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/६८६

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पास्वाब कहते हैं कि मन भी इन्द्रिय है। इसलिए सुख दुःखादि का संवेदन मी प्रत्यक्ष के अन्तर्गत है। विधाय कहते हैं कि प्रत्यक्ष वह शान है जिसका अपर शानकरण नहीं है । यह अनु- मान, उपमान, स्मृति, शन्दज्ञान का निरसन करता है। क्योकि इन शानों का करण अपर शान है। निर्विकल्पक ज्ञान नाम से असंयुत है । सविकल्पक वस्तु के नाम का भी प्राण करता है। नैयायिकों का मत है कि निर्विकल्पक प्रत्यक्ष विशेष्य और विशेषण का ग्रहण करता है किन्तु उनके संबन्ध का ग्रहण नहीं करता। मीमांसा जैमिनि लगभग वही लक्षण बताते हैं जो नैयायिक बताते हैं। जैमिनि कहते कि प्रत्यक्ष से अतीन्द्रिय धर्म का पहण नहीं होता। वह केवल इतना कहते हैं कि इन्द्रियार्य के सनिकर्ष से जन्य ज्ञान प्रत्यक्ष है । यह ज्ञान पुरुष में होता है। प्रभाकर के अनुसार साक्षात्प्रतीति को प्रत्यक्ष कहते हैं। प्रत्यक्ष ज्ञान की प्रत्येक क्रिया में त्रिपुटी सवित् होती है-श्रात्मा जो ज्ञाता है उसकी संवित्ति, शेयवस्तु की संवित्ति और शान की संवित्ति । प्रत्यक्ष क्रिया दो प्रकार की है--निर्विकल्पक, सविकल्पक । प्रत्यक्ष का ज्ञान अन्य प्रत्यक्ष द्वारा नहीं होता। यह स्वसंवेद्य है। प्रशस्तपाद का मत है कि इन्द्रिमार्थ-सनिक के अनन्तर ही वस्तु के स्वरूपमात्र का प्रत्यक्ष होता है। यह निर्विकल्प है। यह सामान्य विशेष सहित वस्तु का आलोचनमात्र है। किन्तु इस ज्ञान में सामान्य-विशेष ज्ञान अभिव्यक्त होते हैं। यह ज्ञान की पूर्वावस्था है । इसमें पूर्व प्रमाणान्तर नहीं है। इसका फल रूपत्व नहीं है । सविकल्प विशेष वस्तु का ग्रहण है। भनुमान स्वानुमान अनुमान दो प्रकार का है--परार्थानुमान और स्वार्थानुमान ! परार्यानुमान शन्दामक है ( सिलाजिम); स्वार्थानुमान ज्ञानात्मक है । दोनों में अत्यन्त भेव होने से इनका लक्षण एक नहीं है । परार्थानुमान वह है जिससे दूसरे को ज्ञान प्रतिपादित कराते हैं। स्वार्थानुमान अपनी प्रतिपत्ति के लिए है। पहले हम स्वार्थानुमान का लक्षण वर्णित करेंगे। बो शान त्रिरूप लिंग से उत्पन्न होता है और जिसका प्रालंबन अनुमेय है, वह स्वार्थानुमान है। अनुमान में मी प्रत्यक्ष के तुल्य प्रमाणपल की व्यवस्था है। यथा नीलसरूप प्रत्यक्ष का अनुभव होने पर नीलबोधरूप अवस्थापित होता है। यही नीलसरूप यो अवस्थापन का है, प्रमाण है और नीलबोधरूप प्रमाणफल है। इसी प्रकार अनुमान के नीलाकार उत्पन्न होने पर नीलोपल्प अवस्थापित होना है। नीलसारूप्य इसका प्रमाण है और नीलविकल्पनरूप इसका प्रमाव- पल है। सारूप्यवश ही नील प्रतीतिरूप सिद्ध होता है, अन्यया नहीं।