पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/६८९

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fort हमारा उत्तर यह है। इन तीन हेतुत्रों में से दो हेतु वस्तुसाधन है। यह विधि के गमक है। एक प्रतिषेध का हेतु है। यह स्मरण रखना चाहिये कि प्रतिषेध से श्राशय अमाव और प्रभाव व्यवहार का है। इसका अर्थ यह है कि हेतु साध्य को सिद्ध करता है, इसलिए वह साध्य का अंग है। साध्य प्रधान है। अतः (साध्य के उपकरण ) हेतु के भेद साध्य के मेद से होते है, न कि स्वरूप-भेद से। साध्य कभी विधि है, कमी प्रतिषेध; क्योंकि विधि और प्रतिषेध एक दूसरे का परिहार है। इसलिए इनके हेतु एक दूसरे से भिन्न है। कोई विधि हेतु से भिन्न है, कोई अभिन्न है ( स एव वृक्षः, सैव शिंशपा)। भेद और अभेद एक दूसरे का त्याग करते हैं। इसलिए. उनकी प्रात्म-स्थिति के हेतु भी मिन्न हैं। अतः साध्य के हेतु मिन्न है, क्योंकि साध्य में परस्पर विरोध है। किन्तु हेतु स्वतः एव मिन नहीं है। पुनः ऐसा क्यों है कि इन्हीं तीन का हेतुत्व है । अन्य का हेतुत्व क्यों नहीं है ? क्योंकि एक दूसरे का तभी जनक होता है, जब वह दूसरे से स्वभावेन प्रतिबद्ध हो ( यथा धूम का अग्नि से स्वभाव-प्रतिबंध है)। स्वभाव-प्रतिबन्ध होने पर ही साधनार्थ साध्यार्थ का शान कराता है। इसलिए तीन ही गमक है, अन्य नहीं। इसका क्या कारण है कि स्वभाव-प्रतिबन्ध होने पर ही गम्यगमकभाव होता है, अन्यथा नहीं? क्योंकि जो स्वमाव से अप्रतिबद्ध है, उनके लिए अव्यविचार नियम का अभाव है। साध्य और साधन में कौन किसका प्रतिबन्ध है ? साध्य में लिंग का स्वभाव-प्रतिबन्ध है। लिंग परायच है, इसलिए वह प्रतिबद है। साध्य अर्थ अपरायत्त है। इसलिए वह प्रतिबद्ध नहीं है । सो प्रतिबद्ध है वह गमक है, जो प्रतिबन्ध का विषय है वह गम्य है । लिग का स्वभाव-प्रतिबन्ध क्यों है। क्योंकि वस्तुतः साधन साध्यस्वभाव है, अथवा साध्य अर्थ से लिंग की उत्पत्ति होती है । र्याद साध्यस्वभाव साधन है, यदि उनका तादात्म्य है, तो साच्य साधन का अभेद होगा। इसीलिए कहा है कि वस्तुतः अर्थात् परमार्थसत् रूप में इनका अभेद है। इसका क्या कारण है कि इन दो निमित्तों (स्वभाव और कार्य) से ही लिंग का स्वभाव- प्रतिबंध होता है,अन्य से नहीं ? क्योंकि जब तादात्म्य नहीं होता या इसकी उत्पत्ति उससे नहीं होती तब स्वभाव- प्रतिबंध नहीं होता। इसलिए कार्य और स्वभाव से ही वस्तु की विधि की सिद्धि होती है। प्रतिषकी सिदि ऐसा क्यों है कि जब प्रतिषेधवश पुरुषार्थ की सिद्धि होती है, तो हम अदृश्य की अनुपलब्धि को सिद्धि का हेतु नहीं मानते १