पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/६९६

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चौधर्म-दर्शन उस साधन की उपलब्धि करें, तो हमको साध्य प्रतीति श्राप ही श्राप हो जाती है। माध्य- निर्देश की पुनः क्या आवश्यकता है ? यही सिद्धान्त अनुपलब्धि प्रयोग को भी लागू होता है। साधर्म्यवान् प्रयोग में भी साध्यवाक्य उसी तरह अनावश्यक है। यथा--उपलब्धि लक्षण प्राप्त होने पर भी जिसका अनुपलम्भ होता है, वह असद्व्यव- हार का विषय है। इस प्रदेशविशेष में घट की उपलब्धि नहीं होती यद्यपि उपलब्धि लक्षण प्राप्त है। "यहाँ घट नहीं है" यह सामर्थ्य से ही अवगत होता है। वैधय॑वत् प्रयोग में भी ऐसा ही है। यथा-जो विद्यमान है और उपलब्धिक्षण-प्राप्त है, उसकी अवश्य उपलब्धि होती है। किन्तु इस प्रदेविशेष में घट की उपलब्धि नहीं है। सामर्थ्य से ही सिद्ध होता है कि सद्व्यवहार का विषय घट यहां नहीं है। इसी प्रकार स्वभाव-हेतु और कार्य हेतु दोनों में सामय से पक्ष का समकालीन प्रत्यय होता है । अतः पक्षनिर्देश की आवश्यकता नहीं है। पक्ष क्या है ? पक्ष वह अर्थ है जो वादी को साध्यवत्वेन इष्ट है और जो प्रत्यक्षादि निराकृत नहीं है। साध्य और असाध्य की विप्रतिपत्ति का निराकरण करना पक्ष का लक्षण है। अतः साध्यक्त्व ही इसका स्वरूप है। इसका अपर रूप नहीं है । जन प्रतिवादी साधन को असिद्ध मानता है, तो उसको साधनत्वेन निर्दिष्ट साध्यत्वेन इष्ट नहीं होता। मान लीजिये कि शब्द का अनित्यत्व साध्य है और हेतु चातुपत्व है। क्योंकि शब्द का चातुपत्व प्रसिद्ध है, इसे हम साध्य मान सकते हैं। किन्तु यह साधन उक्त है । अतः यहाँ उसका साधनत्व इष्ट नहीं है। वादकाल में वादी जिस धर्म को स्वयं साधना चाहता है, वही साध्य है । दूसरा धर्म साध्य नहीं है। अर्थ तभी पक्ष है जब वह प्रत्यक्षादि से निराकृत नहीं है । इसका अभिप्राय यह है कि यद्यपि एक अर्थ में पक्ष के लक्षण विद्यमान हो तथापि यदि प्रत्यक्ष, अनुमान, प्रतीति अथवा स्ववचन से वह निराकृत होता है, अर्थात् विपरीत सिद्ध होता है तो वह पक्ष नहीं है। यथा-१. शन्द श्रोत्र-ग्राह्य नहीं है। यह प्रत्यक्ष से निराकृत होता है। शन्द का श्रोत्रमागत्व प्रत्यक्ष सिद्ध है। २. शन्द नित्य है। यह अनुमान से निराकृत है। २. 'शशि चंद्र शब्द वाच्य नहीं है। यह प्रतीति से निराकृत है। ४. अनुमान प्रमाण नहीं है। यह स्ववचन से निराकृत है।