पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/६९७

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विशवाष हेत्वाभास त्रिरूप में से यदि एक भी अनुक्त हो तो साधन का आभास होगा | यह साधन के सहश है किन्तु साधन नहीं है। त्रिरूप की न्यूनता ही साधन का दोष है । प्रतिवादी या वादी को केवल अनुक्क होने पर ही नहीं किन्तु उक्त के प्रसिद्ध होने पर या सन्देह होने पर भी हेत्वाभास होता है। साधन की प्रसिद्धि या सन्देह होने पर हेत्वाभास की क्या संशा होती है। यदि प्रथम रूप, यदि हेतु का धर्मों में सत्व असिद्ध है या संदिग्ध है, तो हेत्वाभास की संञ्चा प्रसिद्ध की होती है। प्रसिद यथा--जब साध्य यह है कि शब्द अनित्य है, तो चालुषत्ववादी प्रतिवादी दोनों के लिए प्रसिद्ध है। वृक्षों का चैतन्य साध्य है, क्योंकि जब सारी त्वचा का अपहरण होता है, तो उनका भरा होता है. (दिगम्बर )। प्रतिवादी (बौद्ध) के लिए यह असिद्ध है। वह विज्ञान, इन्द्रिय और श्रायु के निरोध को मरण मानता है । वृक्षों में यह मरण असम्भव है, उनमें विशन नहीं होता । इसलिए उसके निरोध का प्रश्न ही नहीं है। साध्य है कि सुखादि अचेतन है (सांख्य)। सांख्यवादी उत्पत्तिमत्व या अनित्यत्व को लिङ्ग उपन्यस्त करते हैं, यथा रूपादि । चैतन्य पुरुष का स्वरूप है। पुरुष में वेदना नहीं होती। सांख्य के मत में उत्पत्तिमत्व और अनित्यत्व दोनों प्रसिद्ध हैं। संदिग्धाषिद्ध अब संदिग्धासिद्ध का उदाहरण देते हैं। यदि हेतु के सम्बन्ध में सन्देह है, अथवा हेतु के श्राश्रयभूत साध्यधर्मों के विषय में सन्देह है, तो संदिग्धासिद्ध है। यथा-धूम वाष्पादि से संदिग्ध होता है। यया---इस निकुञ्ज ( धर्मा ) में मयूर है, क्योंकि हम उसकी ध्वनि सुनते हैं। यह प्राश्रयासिद्ध है। यह भी सम्भव है वहाँ बहुत से पास-पास निकुञ्ज हो। यह अम हो सकता है कि ध्वनि इस निकुञ्ज से श्राती है या किसी दूसरे से । जब धर्मा प्रसिद्ध है तो हेतु श्रसिद्ध है। यया-आत्मा का सर्वगतत्व साध्य है। हेतु-श्रात्मा के सुखदुःखादि गुण सर्वत्र उपलभ्यमान है। यह हेतु प्रसिद्ध है। बौद्ध प्रात्मा को नहीं मानते तो सर्वत्र उपलम्यमान गुगल कैसे सिद्ध हो।