पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/७२

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कान्फरेन्स के कामों में मो थोड़ी बहुत दिलचस्पी लेते थे । मेरे प्रथम गुरु थे पण्डित कालीदीन अवस्थी । वे हम भाई-बहनों को हिंदी, गणित और भूगोल पढ़ाया करते थे। पिता जी मुझसे विशेष रूप से स्नेह करते थे। वे भी मुझे नित्य बाध घण्टा पढ़ाया करते थे। मैं उनके साथ प्रायः कचहरी जाया करता था। मुझे याद है कि वे मुझे अपने साथ एक बार दिल्ली ले गये ये। वहाँ भारत धर्ममहामण्डल का अधिवेशन हुअा था। उस अवसर पर पण्डित दीनदयालु शर्मा का भाषण सुनने को मिला था। उस समय उसके मूल्य को श्रांकने की मुझमें बुद्धि न थी। केवल इतना याद है कि शर्मा जी की उस समय बड़ी प्रसिद्धि थी। मैंने घर पर तुलसीकृत रामायण और समग्र हिन्दी महाभारत पड़ा । इनके अतिरिक्त बैताल पचीसी, सिहासन बत्तीसी, सूरसागर श्रादि पुस्तके भी पढ़ी। उस समय चन्द्रकान्ता की बड़ी शोहरत थी। मैंने इस उपन्यास को १५ बार पढ़ा होगा। चन्द्रकान्ता सन्तति को, जो २४ भाग में है, एक बार पढ़ा था। न मालूम कितने लोगों ने चन्द्रकान्ता पढ़ने के लिए हिन्दी सीखी होगी। उस समय कदाचित् इन्ही पुस्तकों का पठन-पाठन हुआ करता था। १० वर्ष की उम्र में मेरा यशोपवीत संस्कार हुआ। पिता के साथ नित्य मैं संध्या-वन्दन और भगवद्गीता का पाठ करता था। एक महाराष्ट्र ब्राह्मण मुझको सस्वर वेदपाठ सिखाते थे और मुझको एक समय रुद्री और सम्पूर्ण गीता कण्ठस्थ थी। मैंने अमरकोश और लघुकौमुदी भी पढ़ी थी। जब मैं १० वर्षे का था अर्थात् सन् १८६६ में लखनऊ में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ था। पिताबी डेलीगेट थे। मैं भी उनके साथ गया था। उस समय डेलीगेट का 'बैज' होवा या कपड़े का फूल | मैंने भी दरजी से वैसा ही एक फूल बनवा लिया और उसको लगा कर अपने चचाबाद भाई के साथ विजिटर्स गैलरी में जा बैठा । उस जमाने में प्रायः भाषण अंग्रेजी में ही होते थे और यदि हिंदी में होते.तब भी मैं कुछ ज्यादा न समझ सकता । ऐसी अवस्था में सिवा शोरगुल मचाने के मैं कर हो क्या सकता था । दर्शकों ने तंग श्राकर मुझे डांटा और पण्डाल से भाग कर मैं बाहर चला आया। उस समय मैं कांग्रेस के महत्व को क्या समझ सकता था। किन्तु इतना मैं जान सका कि लोकमान्य तिलक, श्री रमेश न्द्र दत्त और जस्टिस रानारे देश के बड़े नेताओं में से हैं। इनका दर्शन मैंने प्रथम बार नहीं किया । रानाडे महाशय की तो सन् १६.१ में मृत्यु हो गई। दत्त महाशय का दर्शन दोबारा रान १६०६ में बलकवा कांग्रेस के अवसर पर हुश्रा । । सन् १९०२ में स्कूल में भरती हुमा । सन् १९०४ या १६०५ में मैंने थोड़ी बंगला सीखी और मेरे अध्यापक मुझको कृत्तिवास की रामायण सुनाया करते थे। पिताजी का मेरे जीवन पर बड़ा गहरा असर पड़ा। उनकी सदा शिक्षा थी कि नौकरी के साथ अच्छा व्यवहार किया करो, उनको गाली-गलौज न दो। मैंने इस शिक्षा का सदा पालन किया। विद्यार्थियों में सिगरेट पीने की बुरी प्रथा उस समय भी थी। एक बार मुझे याद है कि अयोध्या में कोई मेला था। मैंने शौकिया सिगरेट को एक डिबिया खरीदी। सिगरेट जलाकर जो पहला कश खींचा तो सिर घूमने लगा । इलायची पान खाने पर तबीयत संभली । मुझे श्राश्चर्य हुआ कि