पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/७३

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( 4 ) लोग क्यों सिगरेट पीते हैं। मैंने उस दिन से श्राज तक सिगरेट नहीं छुअा। हाँ, श्वास के कष्ट को कम करने के लिए. कभी-कभी स्ट्रमोनियम के सिगरेट पीने पड़े हैं। मेरे पिता सदा आदेश दिया करते थे कि कभी झूटन बालना चाहिये । मुझे इस संबन्ध में एक घटना याद श्राती है । मैं बहुत छोटा था। कोई सनन मेरे मामू को पूछते हुए श्राये । मैं घर के अन्दर गया । मामू से कहा कि श्रापको कोई बाहर बुला रहा है। उन्होंने कहा कि जाकर कह दो कि घर में नहीं है। मैंने उनसे यह सन्देश ज्यों का त्यों कह दिया। मेरे मामू बहुत नाराज हुए । मैं अपनी सिधाई में यह भी न समझ सका कि मैंने कोई अनुचित काम किया है। इससे कोई यह नतीजा न निकाले कि मैं बड़ा राज्यवादी हूँ। किन्तु इतना सच है कि मैं भूल कम बोलता हूँ । ऐसा जब कभी होता है तो लजित होता हूं और बहुत देर तक सन्ताप बना रहता है। पिताजी की शिदा चेतावनी का काम करती है। मैं ऊपर कह चुका हूँ कि मेरे यहां अक्सर साधु-संन्यासी और उपदेशक अाया करते थे। मेरे पिता के एक स्ना थे । उनका नाम था पण्डित माधवप्रसाद मिश्र । वे महीनों हमारे घर पर रहा करते थे। वे बंगला भाषा अच्छी तरह मानते थे। उन्होंने 'देशेर कथा' का हिन्दी में अनुवाद किया था। यह पुस्तक बन्त कर ली गई थी। वे हिन्दी के बड़े अच्छे लेखक थे। वे राष्ट्रीय विचार के थे। मैं इनके निकट संपर्क में श्राया । मेरा घर का नाम 'श्रावनाशीलाल' था। पुराने परिचित अाज भी इसी नाम से पुकारते हैं। मिश्रजी पर बंगला भाषा का अच्छा प्रभाव पड़ा था | उन्होंने हम सब भाइयों के नाम बदल दिये। उन्होंने ही मेरा नाम 'नरेन्द्रदेव' रखा । सनातन धर्म पर प्रायः व्याख्यान मेरे घर पर हुआ करते थे। सन् १६०६ में जम में एक्ट्रेस में पढ़ता था, स्वामी गमतीर्थ का फैजाबाद थाना हुआ और हमारे अतिथि हुए। उस समय वे केवल दूध पर रहते थे । शहर में उनका एक व्याख्यान बहाचर्य पर हुआ था और दूसरा व्याख्यान वेदान्त पर मेरे घर पर हुश्रा था। उनके चेहरे पर बड़ा तेन था। उनके व्यक्तित्व का मुझ पर बड़ा प्रभाव पड़ा और आद को मैंने उनके अन्यों का अध्यक्ष व हिमालय की यात्रा करने जा रहे थे। मिश्रजी ने उनसे कहा कि संन्यासी को मिला सामना का क्या अावश्यकता, इतना कहना था कि वे अपना सारा सामान छोड़कर चले गये और पहाड़ से उनकी चिट्ठी श्राई कि 'राम खुश है। हमारे स्कूल में एक बड़े योग्य शिक्षक थे । उनका नाम था-श्री दचाय भीकाची रानाडे । उनका मुझपर बड़ा प्रभाव पड़ा। उनके पढ़ाने का ढग निराला था। उस समय मैं ८ वीं कक्षा में था। किन्तु अंग्रेजा व्याकरण में हमारे दले के वियायौँ १० वी कदा के विद्यार्थियों के कान काटते थे । मैं अपना कला में सर्वप्रथम हुआ करता था। मेरे गुरुजन भी मुझसे प्रसन्न रहा करते थे। किन्तु संस्कृत के परिडत महाशय अकारण मुझसे और मेरे सहपाठियों से नाराज हो गये और उन्होने वार्षिक परीक्षा में हम लोगों को फेल करने का इरादा कर लिया। हम लोग कई परेशान हुए। उस समय मेरी कक्षा के अध्यापक मास्टर राघरमपलाल स्कूल-लाइन स्पिन थे। इनका भी हम लोगों पर बहुत अच्छा प्रभाव पड़ा था। अपने जीवन में एक बार वह विरक्त हो गये थे। इनके घर पर हम लोग प्रायः बाया