पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/७४

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(६.) करते थे। यह अपने विद्यार्थियों को बहुत मानते थे। लाइब्रेरी की कुंजी मेरे सुपुर्द थी और मैं ही पुस्तके निकाल कर दिया करता था। मुझे याद आया कि पण्डित जी दो वर्ष के कैलेण्डर अपने नाम ले गये हैं। खयाल आया कहीं इन्हीं वर्षों के एएट्रेस के प्रश्नपत्र से प्रश्न न पूछ बैठे। मैंने अपने सहपाठियों के साथ बैठकर उन प्रश्नपत्रों को हल किया। देखा गया कि उन्ही प्रश्नपत्रों से सब प्रश्न पूछे गये है। परीक्षा भवन में पंडित जी ने मुझसे पूछा कि कहो कसा कर रहे हो ? मैंने उत्तेजित होकर कहा कि जीवन में ऐसा अच्छा परचा कभी नहीं किया। उन्होंने कोर्स के बाहर के भी प्रश्न पूछे थे। मुझे विवश होकर ५० में से ४६ अंक देने पड़े और कोई भी विद्यार्थी फेल नहीं हुआ। यदि मैं लाइबेरियन महाशय का सहायक न होता तो अवश्य फेल हो गया होता। सन् १६०५ में पिताजी के साथ मैं बनारस कांग्रेस में गया। पिताजी के सम्पर्क में आने से मुझे भारतीय संस्कृति से प्रेम हो गया था। यह मौखिक प्रेम था। उसका शान तो कुछ था नहीं, किन्तु इसी कारण अागे चलकर मैंने एम. ए. में संस्कृत ली। सन् १९०४ में पूज्य मालवीय जी फैजाबाद आये थे। भारतधर्म महामंडल से संबन्ध होने के नाते वह मेरे पिताजी से मिलने घर पर आये। गीता के एकाध अध्याय सुने। वे मेरे शुद्ध उच्चारण से बहुत प्रसन्न हुए और कहा कि एन्ट्रैस पास कर प्रयाग श्राना और मेरे हिन्दू बोर्डिंग हाउस में रहना । पूज्य मालवीय जी के दर्शन प्रथम बार हुए थे। उनका सौम्य चेहरा और मधुर भाषण अपना प्रभाव डाले बिना रहता नहीं था । यद्यपि मैंने सेन्ट्रल हिन्दू कालेज में नाम लिखाने का विचार किया था, किन्तु साथियों के कारण उस विचार को छोड़ना पड़ा। एन्ट्रैस पासका मैं इलाहाबाद पढ़ने गया और हिन्दू बोडिंग हाउस में रहने लगा। मेरे ३-४ सहपाठी थे। हमको एक बड़े कमरे में रखा गया । छात्रावास में रहने का यह पहला अवसर था। बंग भंग के कारण कांग्रेस में एक नये दल का जन्म हुआ था, जिसके नेता लोकमान्य तिलक, श्री विपिनचन्द्र पाल आदि थे। उस समय तक मेरे कोई खास राजनीतिक विचार न थे, किन्तु कांग्रेस के प्रति आदर और श्रद्धा का भाव था। मैं सन् १६०५ में दर्शक के रूप में कांग्रेस में शरीक हुआ था। प्रिंस श्राव वेल्स भारत आने वाले थे और उनका स्वागत करने के लिये एक प्रस्ताव गोखले ने कांग्रेस के सम्मुख रखा था। तिलक ने उसका घोर विरोध किया। श्रन्त दबाव में उसे वापिस ले लिया, किन्तु उस समय पण्डाल से बाहर चले बाये। विरोध की यह पहली चान सुनायी पड़ी । सन् १६०६ में कलकत्ते में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ। प्रयाग माने पर मेरे विचार तेजी से बदलने लगे। हिन्दू-बोडिंग हाउस उप विचारों का केन्द्र था। पण्डित सुन्दरलालजी उस समय विद्यार्थियों के अगुवा थे। अपने राजनीतिक विचारों के कारण वे विश्वविद्यालय से निकाले गये। उस समम बोटिंग- हाउस में रात-दिन राजनीतिक चर्चा हुश्रा करती थी। मैं बहुत जल्दी गरम दल के विचार का हो गया। इममें से कुछ लोग कलकत्ते के अधिवेशन में शरीक हुए। रिपन काोन में हम लोग ठहराये गये । नरम गरम दल का संघर्ष चल रहा था और यदि श्री दादाभाई