पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/७९

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बातें की। उन्होंने कहा कि मैंने अपने जीवन में कभी सरकार के साथ सहयोग नहीं किया, प्रश्न असहयोग के कार्यक्रम का है। जेल से लौटने के बाद जनता पर उनका वह पुगना विश्वास नहीं रह गया था और उनका ख्याल था कि प्रोग्राम ऐसा हो जिम पर जनता चल सके । वह कमिलों के बहकार के खिलाफ थे। उनका कहना था कि यदि श्राधी भी जगहें खाली रहें तो यह ठीक है, किन्तु यदि वहां जगहें भर जायेंगी तो अपने को प्रतिनिधि कहकर सरकार- परस्त लोग देश का अहित करेंगे। उनका एक सिद्धान्त यह भी था कि कांग्रेस में अपनी बात रखो और अन्त में जो उसका निर्णय हो उसे स्वीकार करो। मैं तिलक का अनुयायी था, इसलिए मैंने कांग्रेस में कौसिल-बहिष्कार के विरुद्ध वोट दिया, किन्तु जब एक बार निर्णय हो गया तो उसे शिरोधार्य किया। धकालत के पेशे में मेरा मन न था। नागपुर के अधिवेशन में जब असहयोग का प्रस्ताव पास हो गया तो उसके अनुसार मैंने तुरन्त वकालत छोड़ दी। इस निश्चय में मुझे एक क्षण की भी देर न लगी। मैंने किसी से परामर्श भी नहीं किया क्योंकि मैं कांग्रेस के निर्णय से अपने को बंधा हुया मानता था। मैंने अपने भविष्य का भी खयाल नहीं किया । पितः बालक बार पूछना चाहा, किंतु यह सोचकर कि यदि उन्होंने विरोध किया तो मैं उनकी अाशा का उल्लंघन न कर सकंगा, मैंने उनसे भी अनुमति नहीं मांगी। किंतु पिताजी को जब पता चला तो उन्होंने कुछ धापत्ति न की। केवल इतना कहा कि तुमको अपनी स्वतंत्र जीविका की कुछ फिन, करनी चाहिये और जब तक जीवित रहै, मुझे किसी प्रकार की चिन्ता नहीं होने दो। असहयोग आंदोलन के शुरू होने के बाद एक बार पण्डित जवाहरलाल फैजाबाद श्राये और उन्होंने मुझमे कहा कि बनारम में विद्यापीठ खुलने जा रहा है। वहां लोग तुम्हें चाहते हैं। मैंने अपने प्रिय मित्र श्री शिवप्रमाद जी को पत्र लिग्वा । उन्होंने मुझे तुरंत बुला लिया। शिवप्रमाद जी मेरे महपाठी थे और विचार-गम्य होने के कारण मेरी उनकी मित्रता हो गयी। वह बड़े उदार हृदय के व्यक्ति ये। दानिय में मैंने उन्हीं को एक पाया जो नाम नहीं चाहते थे। क्रांतिकारियों को भी वह धन से महायता करते थे। विद्यापीठ के काम मेरा मन लग गया। श्रद्धेय डाक्टर भगवानदास जी ने मुझपर विश्वास कर मुझे उपाध्यक्ष बना दिया। उन्हीं की देख रेख में मैं काम करने लगा। मैं दो वर्ष तक छात्रावास में ही विद्याथियों के साथ रहता था। एक कुटुम्ब-सा था | साथ-साथ हम लोग राजनीतिक कार्य भी करते थे। कराची में जब अलीबन्धुत्रों को सजा हुई थी, तब हम सत्र अनारस के गांवों में प्रचार के लिए गये थे । अपना-अपना बिस्तर बगल में दवा, नित्य पैदल घूमते थे । सन् १९२० में डाक्टर साहब ने अध्यक्ष के पद से त्यागपत्र दे दिया और मुझे अध्यक्ष बना दिया। बनारस में मुझे कई नये मित्र मिले। विद्यापीठ के अध्यापकों से मेरा बड़ा मीटा सम्बन्ध रहा । श्री श्रीप्रकाशजी से मेरा विशेष स्नेह हो गया । यह अत्युक्ति न होगी कि वह स्नेहवश मेरे प्रचारक हो गये। उन्होंने मुझे प्राचार्य कहना शुरू किया, यहाँ तक कि वह मेरे नाम का एक अंग बन गया है। सबसे वह मेरी प्रशंसा करते रहते थे। यद्यपि मेरा परिचय जवाहरलाल बी से होमरूल आंदोलन के समय से था,तथापि श्री श्रीप्रकाश जी द्वारा उनसे तथा गणेश जी से मेरो घनिष्ठता