पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/८१

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और पू. पी के लोग खुद नहीं बोलते और जब कोई बोलता है तो कहते है, 'क्या देवकूफ बोलता है। हमारे प्रान्त के बड़े-बड़े नेताओं के श्रागे हम लोगों को कमी बोलने की जरूरत नहीं पड़ती थी। एक समय पण्डित जवाहरलाल भी बहुत कम बोलते थे। किन्तु सन् १९३४ में मुझे गर्टी की ओर से बोलना पड़ा। यदि पार्टी बनी न होती तो शायद मैं कांग्रेस में बोलने का साहस भी नहीं करता। पण्डित जवाहरलाल जी से मेरी विचारधारा बहुत मिलती-जुलती थी। इस कारण तथा उनके व्यक्तित्व के कारण मेग उनके प्रति सदा आकर्षण रहा। उनके संबन्ध में कई कोमल स्मृतियाँ हैं। यहाँ केवल एक बात का उल्लेख करता हूँ। हम लोग अहमदनगर के किले में एक साथ थे। एक बार टहलते हुए कुछ पुरानी बातों की चर्चा चल पड़ी। उन्होंने -नरेन्द्रदेव ! यदि मैं कांग्रेस के प्रांदोलन में न अाता और उसके लिए कई बार जेल की यात्रा न करता तो मैं इन्सान न बनता ।' उनकी बहन कृष्णा ने अपनी पुस्तक में जवाहर लाल जी का एक पत्र उद्धृत किया है, जिससे उनके व्यक्तित्व पर प्रकाश पड़ता है । पण्डित मोतीलाल जी की मृत्यु के पश्चात् उन्होंने अपनी बहिनों को लिखा कि पिता की संपत्ति मेरी नहीं है, तो सबके लिए उसका ट्रष्टीमात्र हूँ। उस पत्र को पढ़कर मेरी आँखों में आंस श्रा गये और मैंने जवाहरलाल जी की महत्ता को समझा । उनको अपने साथियों का बड़ा खयाल रहता है और बीमार साथियों की बड़ी शुश्रूषा करते हैं । महात्मा जी के श्राम चार महीने रहने का मौका मुझे सन् १९४२ में मिला | मैंने देखा कि वे कैसे अपने प्रत्येक क्षण का उपयोग करते हैं । वह रोज आश्रम के प्रत्येक रोगी की पूछ-ताछ करते थे । प्रत्येक छोटे-बड़े कार्यकर्ता का खयाल रखते थे । श्राश्रमवासी अपनी छोटी- छोटी समस्याओं को लेकर उनके पास जाते थे और वह सबका समाधान करते थे। श्राश्रम में रोग-शय्या पर पड़े-पड़े में विचार करता था कि वह पुरुष जो अाज के हिन्दू धर्म के किसी नियम को नहीं मानता, वह क्यों असंख्य सनातनी हिन्दुओं का प्राराध्य देवता बना हुआ है । पण्डित समान चाहे उनका मले ही विरोध करे, किंतु अपढ़ जनता उनकी पूजा करती है । इस रहस्य को हम तभी समझ सकते हैं, जब हम जानें कि भारतीय जनता पर श्रमण-संस्कृति का कहीं अधिक प्रभाव पड़ा है। जो व्यक्ति घर-बार छोड़कर नि:स्वार्थ सेवा करता है, उसके प्राचार की ओर हिन्दू जनता ध्यान नहीं देती । पण्डितजन भले ही उसकी निन्दा करें, किन्तु सामान्य बनता उसका सदा सम्मान करती है। अक्तूबर सन् १९४१ में जत्र मैं जेल से छूय तब महात्माजी ने मेरे स्वास्थ्य के संबन्ध में मुझसे पूछा और प्राकृतिक चिकित्सा के लिए श्राश्रम में बुलाया। मैं महात्मा जी पर बोझ नहीं डालना चाहता था। इसलिए कुछ बहाना कर दिया । पर बन मैं ए. आई. सी. सी. की बैठक में शरीक होने वर्धा गया और वहां बीमार पड़ गया, तब उन्होने रहने के लिए श्राग्रह किया। मेरी चिकित्सा होने लगी। महात्माजी मेरी बड़ी फिक्र रखते थे। एक रात मेरी तबियत बहुत खराब हो गई । जो चिकित्सक नियुक्त थे, घबरा गये, यद्यपि इसके लिए कोई कारण न था। रात को १ बजे बिना मुझे बताये