पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/८४

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प्रस्तावना भी गंगाशरण सिंहनी का प्राग्रह है कि मैं प्रस्तावना के रूप में प्राचार्य नरेन्द्रदेवधी की इस अपूर्व पुस्तक पर दो चार शब्द लिख दूँ। इस स्थिति में तो मुझे "कहाँ राजा भोज और कहां गांगू तेनी वाली कहावत याद अाती है। एक तरफ श्राचार्य नरेन्द्रदेवजी ऐसे प्रकार विद्वान् , विविध विषयों के साधिकार ज्ञाता, सजनता के प्रतीक, अद्वितीय लेखक और वक्ता, राष्ट्रनेता, शिक्षक, कहाँ मेरे ऐसा साधारण व्यावहारिक छोटी छोटी बात की उलझनों में सदा पड़ा रहने वाला साधारण पुरुष। हाँ मुझे इस बात का अवश्य अभिमान हो सकता है और है कि मुझे नरेन्द्रदेवजी ने अपनी मित्रता, अपनी सहयोगिता, अपना स्नेह देकर सम्मानित किया और मेरे सामने अपने व्यक्तित्व के विभिन्न रूपों को सरलता और स्वच्छता से व्यक्त कर मुझे यह अवसर प्रदान किया कि मैं प्रत्यक्ष देख सकूँ कि ऐसे विलक्षण जीव के लिए भी मनुष्य का शरीर धारण करना संभव है। भगवद्गीता में भगवान् श्रीकृष्ण ने ठीक ही कहा है- यद्यविभूतिमत्सावं श्रीमदूर्जितमेव वा। तत्सदेवावगच्छ त्वं मम तेोऽशसम्भवम् ।। इसमें कोई संदेह नहीं कि नरेन्द्रदेवजी में इस देवी तेजस् का अंश प्रचुरता से विद्यमान था। इनके उठ जाने से वास्तव में ससार से एक नर-स्न खो गया। नरेन्द्रदेवजी ने मुझसे यह कई बार कहा कि उनकी प्रवृत्ति दो ही तरफ रहती है- एक तो दर्शन की तरफ और दूनरी राजनीति की तरफ। इन दोनों को वे छोड़ नहीं सकते। हनी की सेवा, ध्यान, साधना, अध्ययन, व्यवहार में उनका जीवन व्यतीत हुश्रा | सदा इतने अस्वस्थ रहते हुए, राजनीतिक कार्य में सदा लगे रहते हुए, सदा लोगों से मिलते रहते हुए,.. उन्होंने कहाँ से समय और शक्ति पायी कि अपने में विद्या की इतनी बृहत् राशि एकत्र कर ली, यह सबके ही लिए सदा आश्चर्य की बात बनी रहेगी । मेरा यह उनको समझाना व्यर्थ होता था कि आपको अपने स्वास्थ्य की चिन्ता करनी चाहिये। श्रापका जीवन हम सबके लिए है, केवल आपके हो लिए नहीं है। यदि आप चले जाएँगे तो दर्शन और राजनीति तो चलती ही रहेगी, पर आपके ऐसा पुरुष हम लोगों को नहीं मिलेगा। वे कहां माननेवाले थे, और दर्शन का अध्ययन और राजनीति के कार्य में उन्होंने अपना समय लगाया और अपना प्राय भी दे डाला। वे सभी प्रकार के दर्शन के विशेषज्ञ थे। किमी भी युग के विचारों के संबन्ध में उनसे बातें की जा सकती थी और जो कोई उनसे मिलता या वह कुछ अधिक जान ही लेकर लौटता