पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/८५

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(१) था। दर्शनों में उनको बौद्ध दर्शन से विशेष प्रेम था। आज यदि पुद्धदेव का व्यक्तित्व, बौद- धर्म के प्राराध्य पुरुष और बौद्ध विचार हमारे देश की राजनीति में विशेष स्थान पा रहे हैं और यदि इस कारण इसका अन्तर्राष्ट्रीय प्रभाव भी पड़ रहा है, तो इसका श्रेय नरेन्द्रदेवजी को ही है, यद्यपि उन्होंने स्वयं इसका अनुभव न भी किया हो । इन्होंने ही प्रथम बार राजनीतिक क्षेत्रों में बौद्ध धर्म और बौद्ध विचागे की चर्चा की जिसका प्रभाव सत्र पर ही पड़ा क्योंकि उनका श्रादर और सम्मान महात्मा गान्धीजी से लेकर सभी राष्ट्र नेता और राजनीतिश करते थे। काशी विद्यापीठ को कि उनका सबसे बड़ा कार्य क्षेत्र रहा है, उसके तो संपूर्ण वातावरण में नरेन्द्रदेवजी का व्यक्तिम, इनकी विचार शैली, इनकी कार्य प्रणाली, फैली रहती थी। ये जहाँ ही जाते थे सबको अपनी तरफ चुंबक की तरह अाकर्षित कर लेते थे, सभी इनका संमान करते थे, मभी इनकी बातों को सुनने लगते ये । यदि उनका प्रभाव सर्वदेशिक हुश्रा तो कोई श्राश्चर्य की बात नहीं। मेरी समझ में इनके ऐसा वका अपने देश में कोई दूसरा नहीं था। कैसो सुन्दर इनकी भाषा थी, कैसे घारा प्रवाह से ये बोलते थे, किम प्रकार से इनके एक वाक्य दूसरे वाक्य से शृंखलाबद्ध रहते थे, यह तो सभी लोग जानते हैं जो उन्हें किसी भी विषय पर कभी भी सुन सके है । व्यावहारिक राजनीति लिखने की वस्तु नहीं है, बोलने को ही वस्तु है । इस कारण मेरे हृदय में बड़ा दुःख रह गया कि उनके भाषणों का कोई संग्रह नहीं किया जा सका । यदि वह होता तो राजनीति में वह उत्तमोत्तम माहित्य का स्थान ग्रहण करता और बहुतों को अपने विचारों को शुद्ध करने में सहायक होता और उन्हें समुचित व्यवहार के मार्ग पर चलने को प्रेरित करता। यह बात तो रह गयी। जो उनके भाषणों को सुनते थे वे ऐसे मुग्ध हो जाते थे कि किसी के लिए उनके शब्दों को लिपि-बद्ध करना कटिन होता था। राजनीतिक संमेलनों में अध्यक्ष श्रादि के पद से जो भाषण देने के लिए वे लिख भी रखते थे, उसे भी वे बोलते समय फेंक देते थे और बोलते ही नाते थे। इन भाषणों को एकत्र न कर संसार ने एक बहुत बड़ी निधि खो दी। पर दर्शन लिखने की भी चीज है, और मुझे हर्ष है और सन्तोष है कि कम से कम उस पर तो वे ग्रंथ लिख ही गये। मैं अपने को और अनेकों को श्राज बधाई देता है कि बौद दर्शन पर उनका यह अपूर्व प्रन्थ प्रकाशित हो रहा है। और बुद्ध भगवान् की २१वी शतान्दी की जयन्ती के शुभ अवसर पर हमें उसे देखने का सौभाग्य भी प्राप्त हो रहा है। दुख इसका अवश्य है कि वे इसका प्रकाशन स्वयं न देख सके | उनके जीवन के अंतिम दिन मैं प्रात:काल से सायंकाल तक उनके शान्त होने तक उनके साथ था । कई बार उन्होंने इस अंथ की चर्चा की और संतोष प्रकट किया कि इसका प्रकाशन ऐसे शुभ अवसर पर होने वा रहा है। ऐसी अवस्था में मुझे भी संतोष है कि इस सुन्दर और अपूर्व रचना की प्रस्तावना लिखने का मुझे निमंत्रण दिया गया है, और मेरी यही शुभ कामना है और हो सकता है कि