पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/९

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पुरोवाक्

त्रिगोत्र के विनेय जनों के धातु, अध्याशय एवं बुद्धि के अनुकूल शास्ता तथागत ने तीनों यानों एवं चारों सिद्धान्तों से सम्बद्ध नेयार्थ और नीतार्थ के रूप में जितने भी धर्म-पर्यायों का उपदेश दिया है, वे सभी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में निर्वाण की प्राप्ति या उसके उपाय के रूप में प्रतिपादित हैं। इनमें एक भी शब्द त्याज्य नहीं है, अपितु सभी निर्वाण के अभिलाषी भाग्यशाली पुरुषों के लिए उपादेय ही हैं। इनमें एक पुरुष के लिए बुद्धत्व प्राप्ति का सम्पूर्ण मार्गक्रम सन्निहित है। एक व्यक्ति एक आसन पर बैठकर समस्त बुद्ध-उपदेशों का अपने अनुष्ठान में अधिगम कर सकता है। इस तरह के सम्पूर्ण एवं अभ्रान्त शासन-रत्न के श्रवण, चिन्तन और मनन करने की विधि का महारथी नागार्जुन, असंग आदि अनगिनत पूर्व सिद्धों और पण्डितों ने प्रतिपादन किया है। फलस्वरूप अतीत में आर्यावर्त में भगवान् बुद्ध का शासन सूर्य की भांति प्रकाशित हुआ था। परन्तु कालान्तर में वह मध्यवर्ती भारत में सर्वथा क्षीण हो गया और कई सौ वर्षों तक यही स्थिति रही। इधर बीसवीं शताब्दी में पुन: धार्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक कार्यक्रमों के माध्यम से बुद्धशासन का पुनरुद्धार या पुनर्जागरण का कार्य प्रारम्भ हुआ है। फिर भी अध्ययन और साधना की परम्परा ही नहीं, अपितु शास्त्र-ग्रन्थों के भी मूल रूप से विलुप्त हो जाने के कारण दर्शन शास्त्रों के स्थूल एवं एकांगी अध्ययन के माध्यम से तद्विषयक अज्ञान और मिथ्या ज्ञानों को हटाना सम्भव नहीं था। संस्कृत, पालि एवं तिब्बती आदि भाषाओं में विद्यमान गम्भीर दर्शनशास्त्र भाषागत कठिनाइयों के कारण जनसाधारण की पहुंच के बाहर थे। दूसरी ओर आधुनिक भारतीय भाषाओं में तीनों यानों और चारों सिद्धान्तों को सामान्य रूप में समग्र रूप से प्रतिपादित करने वाला कोई दूसरा ग्रन्थ उपलब्ध नहीं था। ऐसे समय में आचार्य नरेन्द्रदेव ने 'बौद्ध धर्मदर्शन' नामक ग्रन्थ की हिन्दी में रचना की। उनका यह कार्य बुद्ध-शासन के लिए संजीवनी की तरह सिद्ध हुआ। साथ ही उन्होंने पूर्ववर्ती प्रामाणिक आचार्यों द्वारा रचित बौद्धशास्त्रों की ही भांति इस प्रामाणिक ग्रन्थ की रचना की है। दर्शन एवं सिद्धान्तों के प्रतिपादन के समय अपनी बुद्धि और तर्क के प्रयोग से उत्पन्न दोष