पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/९०

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२ बौद्ध धर्म दर्शन विचार था कि देवों ने अपने उच्च पद को तपस्या से प्राप्त किया था। धीरे-धीरे कोरे कर्मकाण्ड के विरुद्ध अार्यों में विद्रोह होने लगा; पशु-वध के विरुद्ध आवाज उटने लगी। यह कहा जाने लगा कि यज्ञ-यागादि हीन हैं, ब्रह्म-शान सर्वश्रेष्ठ है। यह उपनिषत् काल था। इस काल में ब्रह्मविद्या की चर्चा बड़ने लगी। ऋषि आश्रमों में निवास करते थे, और ब्रह्म-चिन्तन में रत रहते थे। जिशाम शिक्षा के लिए, उनके पास जाते थे और जिनको यह पात्र समझते थे, उनको शिक्षा देते थे । ब्राह्मण धर्म के अन्तर्गत तापम भी होते थे, जिनको वैवानस कहते ये। इनके लिए जो प्राचारविहित था, उसका वर्णन 'वैवानमसू त्र में मिलता है । बौद्ध भिक्षुओं में भी ऐसे भिन्नु होते थे, जो वैवानमों के नियमों का पानन करने थे। इन नियमों को 'धुतंग' कहते हैं। वृतमूल-निकेतन, अरश्यनिवास, श्मशानाम, अन्यबहामान, पाशुकुल- धारण आदि 'धुतंग' हैं । (क्लेशों के अश्यम से भिन्तु विशुद्ध होता है। बद 'धुन' कहलाता है। उसके अंग 'धुतंग है।) वैग्वानमों से प्रभावित होकर बौद्धों में भी इस प्रकार के यति होने लगे। कुछ विद्वानी का कहना है कि जब बौद्धधर्म पूर्व से पश्चिम की ओर गया, तब यह परिवर्तन हुआ। पश्चिम देश में पूर्व देश की अपेक्षा ब्राह्मणों का कहीं अधिक प्रभाव था । इन विद्वानों के अनुमार बौद्धधर्म का पूर्व रू। अत्यन्त मरल था । पश्चिम देश के बाहाणों में बौद्ध धर्म का प्रचार हो जाने के उपरान्त उनके प्रभाव से यह परिवर्तन परित हुआ और 'धुतंग का मतावान लेने वाला भिन्नु अधिक आदर की दृष्टि से देखा जाने लगा। यह बात ध्यान में रखने की है कि युद्ध के समय में आस्तिक का अर्थ इश्वर में प्रति- पन्न नहीं था और न वेद-निन्दक को हो नास्तिक कहते थे । पान के निर्णन के अनुसार नास्तिक वह है, जो परलोक में विश्वास नहीं करता ( नानि परलोको यभ्य गः)। इस निर्वचन के अनुसार बौद्ध और जैन नास्तिक नहीं है । शुद्ध ने अपने मूपान्तों में (संवादों में ) नास्तिक- वाद को मिथ्याटिककर गर्दिन किया है । बुद्ध के समकालीन 'भजित वंश कम्यान, जो स्वयं एक गण के आचार्य थे, नाग्निकवादा थे | निमान के लिये बंद गौर का विषय है कि भारतीय कर्म-फल के महत्व पर जोर देते थे, ३श्वर अति ! परन । मानव-समाज की स्थिति और उन्नति के लिए समान में व्यवस्था का होना यावश्यक और यह तभी हो सकती है, जब मत्र लोग इसमें प्रातपन ही अशुभ का अनुन, शुभ कग का शुभ और न्यामिन का व्यामिश्र फल होता है । यह सदाचार तथा नानकता का भित्ति है। बुद्ध का प्रादुर्भाव ऐसे काल में-जब इन दार्शनिक प्रानां पर विचार-विमर्श होता था और सद्-गृहस्थ भी सत्यान्वे रण में घर-बार छोड़कर भिक्षु या वनस्य हाते थे--बुद्ध का शाक्य-वंश में जन्म हुआ। इनका कुल क्षत्रिय और गोत्र गौतम था। इनका नाम सिद्धार्थ था। ये राजा शुद्धोदन के पुत्र थे। उस समय पूर्व के देशों में क्षत्रियों का प्राधान्य था । ब्रह्मज्ञानी राजा जनक, जो बामणों को भी ब्रहा-विद्या का उपदेश करते थे, मिथिला के थे। बौद्धधर्म और जैनधर्म के प्रतिष्ठापक