पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/९१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

प्रथम अध्याय भी क्षत्रिय थे। ये धर्म वैदिकधर्म के विरोधी थे, यद्यपि बुद्ध ने सद्-ब्राह्मणों के लिए, अपशब्द कहना तो दूर रहा, उनकी प्रशंसा ही की है । क्षत्रिय ब्राह्मण-पुरोहितों के प्रतिपक्षी थे । वे उनको अपनेसे ऊंचा मानने को तैयार नहीं थे। ब्राह्मण ग्रन्थों में प्रतिवादी के वचन को ब्राझण 'क्षत्रिय के शब्द कहते थे । इससे ज्ञापित होता है कि वे त्रियों को अपना प्रतिद्वन्द्वी मानते थे । 'पालि निकाय में क्षत्रियों को वर्णों की गणना में प्रथम स्थान दिया है । शाक्य-वंश की राजधानी कपिलवस्तु थी । इनका राज्य छोटा-मा राज्य था । उस समय भारत में एक मुढ विशाल राज्य न था, जैसा कि आगे चलकर नन्दों ने संगटित किया, जिसमें चन्द्रगुप्त मौर्य ने वृद्धि की । जातकों से मालूम होता है कि बुद्ध के पूर्व १६ महाराष्ट्र थे । बुद्ध के काल में चार प्रधान राज्य संगठित हो रहे थे । इन १६ में से कुछ राष्ट्र अन्य राष्ट्रों में समि- लित कर लिये गये। इस कारण महाराष्ट्रों की संख्या घ ने लगी। चार प्रधान राष्ट्र ये थे- (१) मगध, जिसमें अंग शामिन था और जिसका राजा बिम्बिगार था; (२) कोशल, जिमकी राजधानी श्रावस्ती थी, जिसमें काशी सम्मिलित थी और जिनका राना प्रसे जत् था; (३) कौशाम्बी, जिसका राजा वत्सराज उड्यन था और (४) अवन्ती, जिसका गजा चण्डप्रद्योत था। इन चार गज्यों की राजधानियाँ आगे चलकर बौद्ध धर्म की केन्द्र हो गई। सिद्धार्थ ने राजकुमारों की भाँति शिक्षा प्राप्त की। इनके पिता वैदिक धर्म के अनुयायी थे। सिद्धार्थ विचारशील थे और इसलिए इनकी उत्सुकता जीवन के रहस्यों को जानने के लिए बड़ने लगी। सांसारिक मुखों से ये विरक्त हो गये। संसार से इनको उद्वग उत्पन्न हुश्रा और परमार्थ-सत्य की खोज में एक दिन इन्होंने घर से अभिनिष्क्रमण किया और कामय वस्त्र धारण कर भिन्तु-भाव ग्रहण किया। उस समय तापसों की विशेष प्रसिद्धि थी। सिद्धार्थ के पिता के यहाँ काल-देवल आदि तापस आया करते थे। एक तपोवन में उनको मालूम हुआ कि बिम्ब- प्रकोष्ठ में 'अराड-कालाम' नामक तापम रहते हैं, जो नि.श्रेयम् का ज्ञान रखते हैं । यह सुनकर सिद्धार्थ अराड के तपोवन में गये । वहाँ उनका स्वागत हु! | मिद्धार्थ ने पूछा कि जरा-मरण- रोग से सत्त्व ( जीव ) कैसे विमुक्त होता है ? 'अराडा ने संक्षेप में अपने शान्त्र के निश्चय को बताया। उन्होंने संमार की उत्पत्ति और त्रिवर्तन को समझाया । तत्वों की शिक्षा देकर उन्होंने नैष्ठिक-पद की प्राप्ति का उपाय भी बताया। किन्तु सिद्धार्थ को 'अराइ' की शिक्षा से सन्तोष नहीं हुआ। विशेष जानने के लिए वे 'उद्रक-रामपुत्र' के आश्रम को गये,किन्तु इनके भी दर्शन को सिद्धार्थ ने स्वीकार नहीं किया। इनकी शिक्षा सांख्य-योग की थी। जब इनसे परितोष न हुश्रा, तब ये अनुत्तर ( सर्वश्रे) शांतिवर-पद की गवेणा में 'उरुवेलाः आये और 'नेरञ्जना' (या नैरसरा) नदी के तट पर आवास किया। इन्होंने विचार किया कि मुझमें भी श्रद्धा है, वीर्य है, स्मृति, समाधि और प्रजा है; मैं स्वयं धर्म का साक्षात्कार करूँगा। बुद्ध के समसामयिक हमने ऊपर कहा है कि बुद्ध के समय में अनेक वाद प्रचलित थे । 'दीघनिकाय के बाजाल-सुत्त में इन वादों का उल्लेख है। इनका वर्णन यहाँ देना आवश्यक है; किन्तु बुद्ध के समसामयिक जो ६ शास्ता- संघी, गणी, गणाचार्य और तीर्थकर थे; उनका संदेप में हम