पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/९२

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बौर-धर्म दर्शन वर्णन देंगे। उनके नाम ये हैं---अजित-केश-कम्बल, पूरण-कस्सप, पकुध-कश्चायन, मक्खलि- गोसाल, संजय-वेलहिपुत्त, निर्गठ-नातपुत्त । इनमें 'निर्गठ-नातपुत्त? जैनधर्म के अन्तिम तीर्थङ्कर महावीर हैं। इनमें केवल यही आस्तिक थे । अजित-केश-कम्बल के मत से न दान है, न इष्टि, न हुत, न सुकृत और न दुष्कृत कर्म का फल-विषाक है, न इह लोक है, न परलोक, न श्रमण- ब्राह्मण हैं, जिन्होंने अभिशावल से इहलोक परलोक का साक्षात्कार किया है। मनुष्य चानु- महाभूतिक है । जब वह काल (मृत्यु) करता है, तब पृथिवी पृथिवी काय को अनुपगमन करती है, 'इत्यादि । इन्द्रियाँ आकाश में संक्रमण करती हैं । बाल और पण्डित काय-भेद से विनष्ट होते हैं, मरणानन्तर वे नहीं होते। 'संजय का कहना था कि प्राणातिपात (वध ), अदत्ता. दान (स्तेय), मृषावाद और परदारनामन से पार नहीं होता और दान-यज्ञ श्रादि से पुण्य का श्रागम नहीं होता । मक्खजि-गोमा न नियति मादी थे । वे मानते थे कि सब मच ( जीव) अवश हैं, अवीर्य हैं। उनमें न बन है, न वार्य है, न पुरुष-पराक्रम । उनके अनुसार हेतु नहीं है, सत्वों के संक्लेश का प्रत्यय ( हेनु) नहीं हैं; सत्त्व अहेतुक क्लेश भोगते हैं और बिना हेतु- प्रत्यय के विशुद्ध होते हैं । गोसाल श्राजीवक सम्प्रदाय के संस्थापक थे। वे कहते थे कि बाल और पण्डित सब सत्त्व-संसरण कर दुःख का अन्त करते हैं। इसे संसार-शुद्धि कहते हैं। ये अचेलक थे और अनेक प्रकार के कष्ट-तप करते थे। जेतवन के पीछे उनका एक स्थान था । ये पंचाग्नि तापते थे,उत्कुटिंक थे और चमगादड़ की भांति हवा में झूलते थे । 'पालि निकाय' में इनको मुक्ताचार कहा है । एक सूत्रान्त में इनको 'पुत्तमताय पुत्ता' कहा है, अर्थात् यह उस माता के पुत्र है जिसके पुत्र मर जाते हैं। बुद्धघोष के अनुमार 'पूरण' आत्मा को निष्क्रिय और कर्म को नहीं मानते थे । 'अजितः नास्तिक थे और कर्म-विपाक को नहीं मानते थे । 'गोसाल' नियतिवादी थे, ये कर्म और कर्म-फल दोनों का प्रतिपेध करते थे । बुद्ध श्राजीवकों को सबसे बुरा समझते थे। तापस होने के कारण इनका समाज में आदर था। लोग निमित्त, शकुन, स्वप्न श्रादि का फल इनसे पूछते थे। अशोक और उनके पौत्र 'दशरथ' के लेखों में ग्राजीवकों का उल्लेख है । इनके अतिरिक और भी तापस थे जो शरीर को नाना प्रकार के कष्ट देते थे। कोई सन का कपड़ा पहनता या; कोई कुश-चीर, कोई केश-कम्बल धारण करता था, कोई उलूक-पक्ष धारण करता था, कोई केश-धन करता था; कोई कण्टक पर शयन करता था (कएटकापाश्रय ), कोई गोप्रतिक, कोई मृगप्रतिक होता था, किसी की उच्छवृत्ति थी। ये हिम-बात-सूर्यादि दुःख को सहन कर अनेक प्रकार से शरीर का अातापन-परितापन करते थे। इनका विश्वास था कि दुःख से सुख की प्राप्ति होती है। इसी कारण उस युग में तापसों का बड़ा आदर था। उनका कष्टमय बीवन को स्वीकार करना एक बड़ी मात समझी जाती थी। श्रावय होता है कि 'अजित-केश-कम्बला ऐसे लोगों के लिए समाज में श्रादर था। इसका कारण यही प्रतीत होता है कि ये तापस थे। ये तपस्या किस उद्देश्य से करते थे, यह भी बात नहीं है । ये लोग अद्भुत कर्म दिखाते थे; यह दावा करते थे कि इन्होंने ऋद्धियाँ प्राप्त की है। अतः इसमें कोई श्रावय नहीं है कि बुद्ध ने भी 'नरखना' के तट पर रह कर ६ वर्ष