पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/९३

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प्रथमपायं ५ कठोर तपस्या की; क्योंकि उस समय नैष्ठिक-पद की प्राप्ति के लिए तप श्रावश्यक समझा जाता था। बुद्धस्व-प्राप्ति के साथ पाँच अन्य भिक्षु भी थे। उन्होंने अनशन-व्रत यह समझ कर किया कि इससे वह जन्म-मरण पर विजय करेंगे । वे एक तिल-तण्डुल पर रहने लगे । इसका परिमाण यह हुआ कि बुद्ध अत्यन्त कृश हो गये। वह त्वस्थिशेष रह गये । 'बुद्धचरित' के शब्दों में तब उनको मालूम हुआ कि यह धर्म विराग, बोध, मुक्ति के लिए नहीं है; दुर्बल इस पद को नहीं पा सकता । ऐसा विचार करके बुद्ध पुनः भोजन करने लगे। जब उनका शरीर और मन स्वस्थ हुना, तब उन्होंने समाधि लगाई। उन पांच भिन्तुओं ने असन्तुष्ट होकर उनका साथ छोड़ दिया । सिद्धार्थ बोध के लिए कृतसंकल्प हो अश्वत्थमूल में पर्यकबद्ध हुए और यह प्रतिज्ञा की कि जबतक मैं कृतकृत्य नहीं होता, तब तक इसी श्रासन में बैठा रहूँगा । रात्रि के प्रथम याम में उनको पूर्व जन्मों का ज्ञान हुश्रा, दूसरे याम में दिव्य-चक्षु विशुद्ध हुआ, अन्तिम याम में द्वादश प्रात्य-समुत्पाद का साक्षात्कार हुआ और अरुणोदय में उनको सर्वज्ञता का प्रत्यक्ष हुअा। यह उनका बुद्धत्व है । उस दिन से वे बुद्ध कहलाने लगे। सर्वशता का साक्षात्कार कर भगवान् ने जो प्रीतिवचन ( उदान ) कहे, उनको हम यहाँ उद्धृत करते हैं-"कष्टमय जन्म बार-बार लेना पड़ा । मैं गृहकारक की खोज में संसार में व्यर्थ भटकता रहा । किन्तु गृहकारक ! अब मैंने तुझे देख लिया । अब तू फिर गृहनिर्माण न कर सकेगा ! तेरी सब कड़ियाँ टूट गई; गृह-शिखर ढह गया। चित्त-निर्वाण का लाभ हुआ; तृष्णा का क्षय देख लिया ।" सात सप्ताह तक वे विविध वृक्षों के तले बैठकर विमुक्ति-सुख का आनन्द लेते रहे। भगवान् को बुद्ध, तथागत, सुगत आदि कहते हैं। भगवान् के श्रावक सौगत, शाक्यपुत्रीय, बौद्ध कहलाते हैं । ऐसी कथा है कि बुद्धत्व प्राप्त कर भगवान् की धर्मोपदेश में अनिन्छा हुई; किन्तु ब्रह्मा सहपति की प्रार्थना पर धर्मोपदेश के लिए राजी हुए । पहले उनका विचार 'अराड- कालाम' और 'उद्रक-रामपुत्र' को धर्म का उपदेश ( देशना ) देने का हुआ, किन्तु यह जानकर कि वे अब जीवित नहीं है, उन्होंने उन पाँच भिक्षुओं को धर्म का उपदेश करने का निश्चय किया जो उनका साथ छोड़कर 'ऋषिपत्तन' मृगदाव (सारनाथ,काशी के पास) को चले गये थे । बागड़ पूर्णिमा के दिन उनका पहला उपदेश 'सारनाथ' में हुआ। यह उपदेश धर्मचक्र प्रवर्त्तन-सूत्र है। यहीं धर्मचक्र का प्रथम बार प्रवर्तन हुआ। इसलिए सारनाथ भिक्षुत्रों का एक तीर्थ हो गया । पाँचों भितु प्रथम शिन्य हुए। वाराणसी का एक वणिक-पुत्र 'यश' भी संसार से विरक्त हो ऋषिपत्तन पाया । वह भी भगवान् से उपदेश पाकर भिन्तु हो गया। यह संवाद पाकर उसके ५४ मित्र भी भिनु हो गये । इस प्रकार इन ६० भित्तुओं को लेकर बुद्ध-शासन का श्रारम्भ हुश्रा । भगवान् ने एक संघ की प्रतिष्ठा की। आगे चलकर जत्र संघ के नियम बने, तब संघ की सदस्यता के लिए एक विधि रखी गई। इसे 'उपसंपदा' कहते हैं । मध्यदेश में १० भिक्षुओं के और प्रत्यन्तिक जनपदों में पांच भिन्तुओं के संब के संमुख 'उपसंपदा होती थी।