पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/९४

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६ बौद्ध-धर्म दर्शन प्रारम्भ में जत्र संघ नहीं था, तब पहले शिष्यों की उपसंपदा “एहि भिक्षो' इस वाक्य से हुई। पंचवर्गीय भिन्तुओं की उपसंपदा इसी प्रकार हुई। इसी प्रकार जब भगवान् ने आनन्द के अाग्रह पर स्त्रियों को संघ में प्रवेश करने की आशा दी तो महाप्रजापती गोतमी की (बो पहली भिक्षुणी थी ) उपसंपदा भित्तुओं के गुरुधर्मों को स्वीकार करने से हुई । धर्मप्रसार भगवान् ने धर्म-प्रचार के लिए इन ६• भिक्षुओं को भिन्न-भिन्न दिशाओं में भेजा और स्वयं 'उरुवेला' की ओर गये। वहाँ 'उरुवेल-काश्यप और उनके दो भाई एक बृहत् संघ के साथ निवास करते थे। ये जटिल थे। इनको भी उपदेश देकर भगवान ने शासन में दीक्षित किया । इन जटिलों की प्रास-पास बहुत ख्याति थी। भगध के महाराज बिम्बिसार भी इनका बहुत आदर करते थे। यह जानकर कि वे बुद्ध के शासन में प्रवेश कर गये, उनको बड़ा आश्चर्य हुआ। इससे बुद्ध की ख्याति फैली और स्वयं बिम्बिसार उपासक हो गये। गृहस्थ शिव्य उपासक उपासिका कहलाते थे । भगवान् चारिका ( भ्रमण ) करते हुए कपिलवस्तु पहुँचे और वहाँ कई दिन ठहरकर उन्होंने धर्म का उपदेश किया । शाक्य- कुल के अनेक युवक भिन्तु हो गये । बुद्ध के पुत्र राहुल भी भिक्षु हुए । यहाँ से भगवान् राजगृह आये। उस समय वहाँ श्रमण संजय अपने संघ के साथ रहते थे | इस संघ में 'शारिपुत्र' और 'मौद्गल्यायन' थे। ये भी बौद्ध भिक्षु हो गये । इन्होंने भिक्षु 'अश्वजित् से श्रमण गौतम की शिक्षा का सार सुना था। यह शिक्षा इस गाथा में उपनिबद्ध है। यह अनेक स्थानों पर उत्कीर्ण पाई गई है- ये धम्मा हेतुप्पभवा तेसं हेतु तथागतो श्राह । तेसं च यो निरोधो एवं वादी महासमणो ॥ ये दो अग्रश्रावक कहलाते हैं। इस प्रकार धीरे-धीरे बौद्धधर्म फैलने लगा। हम इस धर्म के मुख्य-मुख्य सिद्धान्तों का उल्लेख आगे करेंगे और बुद्ध की ताई निर्वाण की साधना का भी दिग्दर्शन करायगे । तथा विकास-कम से बौद्ध दर्शन के विभिन्न वादों का भी बालोचन करेंगे । यहाँ आर्यदेव के शब्दों में इतना कहना पर्याप्त होगा- धर्म समासतोऽहिंसा वर्णन्ति तथागताः । शून्यतामेव निर्वाणं केवलं तदिहोभयम् ।। अहिंसा और निर्वाण ये दो धर्म जो स्वर्ग-विमुक्ति प्रापक हैं, तथागत द्वारा वर्णित हैं। यह ज्ञान और योग का मार्ग है। भगवान् ने स्वयं कहा है कि जिस प्रकार समुद्र का एक रस लवण-रस है, उसी प्रकार मेरी शिक्षा का एक रस विमुक्ति-रस है । आयुर्वेदशास्त्र के अनुसार मा. धान् की भी चतुःसूत्री है-दुःख है, दुःख का हेतु है, दुःख का निरोध है, दुःखनिरोधगामिनी प्रतिपत्ति (मार्ग ) है । भगवान् यद्यपि ब्रह्म या ईश्वर और आत्मा की सत्ता को नहीं मानते थे, तथापि पुनर्जन्म, परलोक में प्रतिपन थे । वे ब्राह्मणों के लोकवाद और देववाद को मानते थे। वे देव, यक्ष, किनर, असुर, प्रेत की सत्ता और स्वर्ग-नरक की कल्पना को मानते थे। हम अपर कह चुके हैं कि वे नास्तिक नहीं थे। वे कर्म और कर्म का फल मानते थे।