पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/९५

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प्रथम अध्याय बौद्धधर्म के प्रसार का यह फल हुश्रा कि तापमों और नास्तिकों का प्रभाव बहुत कम हो गया। इसी कारण निम्रन्थ और श्राजीवक बौद्ध भिक्षुओं की हँसी उड़ाया करते थे कि ये जब तपस्या नहीं करते, तब निर्वाण का लाभ क्या करेंगे ? बौद्ध-भिन्तुनों ने एक प्रबल संघ स्थापित किया, जो राजाश्रों का, विशेर कर अशोक का प्रश्रय पाकर उन्नत श्रयस्था को पहुँचा । चारिका, वर्षावास और प्रवारणा धुद्ध भिलुओं के साथ बारिका करते थे; भिन्नुओं के सन्देहों का निराकरण करते थे; उनको धर्म-विनय (भिक्षुओं के नियम ) की शिक्षा देते थे; जो तीर्थिक उनसे प्रश्न करने श्राते थे, उनसे संलाप करते थे और गृहस्थों को धर्म का उपदेश देते थे । वर्षा ऋतु में चारिका बन्द हो जाती थी; भितु एकस्थ होते थे। उपासक उनको वर्षावास का निमंत्रण देते थे। उपासक उनकी भिक्षा की व्यवस्था करते थे और भिक्षु उनको धर्मोपदेश देते थे। इस प्रकार उनमें श्रादान और प्रतिदान होता था और संघ की एकता सिद्ध होती थी। वर्षा के अन्त में एक उत्सव होता था जिसे प्रवारणा ( पवारणा ) कहते थे ! इस उत्सव में मिनु और उपासक सब संमिलित शेते थे और एक भिक्षु सभी भिक्षुओं और उपामको को धर्मोपदेश देता था। वे दिन में उपोसथ (व्रत) रखते थे और सायंकाल को संमेलन होता था। एक भिक्षु दूसरे के पाप को श्राविष्कृत करता था और वह पाप स्वीकार करता था । अन्त में उपासकों द्वारा लाई हुई दान की वस्तुएँ भिक्षुओं में बाँट दी जाती थीं । हर पांचवें वर्ष प्रवारणा का उत्सव विशेष समारोह से होता था। यह पंचवार्षिक परिषद् कहलाती थी । यद्यपि 'पालि निकाय में इसका उल्लेख नहीं है, तथापि अशोकावदान, दीपवंश, महावंश और चीनी यात्रियों के विवरण से इसके अस्तित्व का पता चलता है । फाहियान की यात्रा के विवरण से मालूम होता है कि 'खाश' के राजा ने पंचवार्षिक परिषद् को बुलवाया था, जिसमें उन्होंने अपना सर्वम्व दान में दे दिया। हेनसांग ने भी कूचा और चामियान में इस उत्सव को देखा था। वैदिक विश्वजित् यज्ञ में भी सर्वसम्पत्ति का दान होता था। ५०६ ई. में चीन के महाराज ने भी पंचवार्षिक परिषद् को आमंत्रित किया था। इससे मालूम होता है कि बौद्धो के जीवन में इस उत्सव का विशेष स्थान था। आश्चर्य है कि 'विनयपिटक' में इसका उल्लेख नहीं है । इसका कारण यह प्रतीत होता है कि विनय में केवल भितुओं के संबन्ध में बातें कही गई हैं और उपासकों की उपेक्षा की गई है। वर्षा के उत्सव के वर्णन में भी उपासकों का उल्लेख अप्रत्यक्ष रूप से आता है। जब हम 'चुलचमा के ११ ३ खन्धक का पाठ करते हैं, तब हम देखते हैं कि केवल भिन्तु और उनमें भी विशेषकर अर्हत् (अर्हत् वह है जिसने निर्माण का लाभ किया है ) का ही उल्लेख होता है। इन्हीं का प्राधान्य है। प्रथम धर्म-संगीति में, जो वर्षावास के समय हुई, केवल अर्हत् ही रहे, उपासक नहीं । नित्सांग मगध देश के वर्णन में लिखते हैं कि उस स्थान के पश्चिम जहाँ श्रानन्द ने अर्हत् पद प्राप्त किया, अशोक द्वारा निर्मित एक स्तूप था। इसी स्थान में महासंघ निकाय ने धर्म का संग्रह किया था। जो शैक्ष की अवस्था में थे, या उस अवरथा को पार कर