पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/९६

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S बौद्ध धर्म दर्शन चुके थे; किन्तु महाकाश्यप की धर्म-संगीति में शरीक नहीं किये गये थे, वे वहाँ एकत्र हुए। उन्होंने कहा कि जबतक शास्ता (बुद्ध) थे, वे हम सबको उपदेश देते थे; किन्तु धर्मराब के परिनिर्वृत्त (निर्माण में प्रविष्ट ) होने के बाद से अब चुनाव होता है। उन्होंने आपस में निधय किया कि हमको भी धर्म का संग्रह करना चाहिये । इस संगीति में भिक्षु और उपासक दोनों बड़े समूह में समिलित हुए थे। उन्होंने भी सूत्र, विनय, अभिधर्म, संयुक्तपिटक और धारणीपिटक का संग्रह किया। इस निकाय को 'भहासांधिका इसलिए कहते हैं, क्योंकि इसमें उपासक और मितु दोनों का एक बड़ा समुदाय शरीक हुआ था। इसमें संदेह नहीं कि इस वृत्तान्त से और द्वितीय संगीति के अवसर के संघभेद के वृत्तान्त से विरोध है; किन्तु जैसा कि 'श्रोल्डेनवर्गः ने कहा है, इस द्वितीय संगीति के विवरण राजगृह की संगीति से पहले के हैं। महासाधिकों का पृथक् होना भी दोनों धर्मसंगीतियों के कुछ विवरणों से पुराना हो सकता है । चीनी यात्री के इस कथन का समर्थन प्रथम संगीति के उन विवरणों से होता है जो दो परि- निर्वाणसूत्र के परिशिष्ट है। इनके अनुसार परिषद् में कम से कम सब प्रकार के भिक्षु थे, फेवल अर्हत् ही न थे। एक विवरण के अनुसार इनके अतिरिक्त देव, यक्ष, नाग, प्रेत, उपासक और उपासिका भी थे। इन सूत्रों का संबध महासांघिक विनय से है । यह मंभव है कि यह दो परिनिर्वाणसूत्र 'महासांघिक निकाय के हैं। यह परम्परा युक्त प्रतीत होती है और प्रथम महासंगीति के जो विवरण उपलब्ध है, वे प्रायः संघ के इतिहास में एक विशेष परिवर्तन की सूचना देते हैं। अतः हमको मानना होगा कि प्रारम्भ में वर्षों में जिस परिषद् का संमेलन होता था, वह महासंघ था । उसमें सब प्रकार के बौद्ध मंमिलित होते थे। उपासकों का उसमें संमिलित होना आवश्यक था। निर्वाण बुद्ध के जीवन-काल में भिक्षुओं का गृहस्थों से घनिष्ट संबन्ध था। उस समय बुद्ध की शिक्षा भी बहुत सरल थी। सर्वभूत-मैत्री इसका विशेष गुण था । उद्देश्य स्वर्ग या ब्रह्म- लोक प्राप्त करना था। प्रातिमो नर्मवर-समादान, शुभकर्म और भावना से उद्देश्य की सिद्धि होती थी। कुछ विद्वानों का मत है कि उस समय निर्वाण की कल्पना नभाव, अकिंचन की न होकर अमृत-पद की थी। निर्वागा अच्युत स्थान है। यह अचल, अजर, अमर, क्षेमपद अमृतपद है । यह अनुत्तर योगक्षेम है । स्वयं बुद्ध कहते हैं कि इस अवस्था को व्यक्त करने के लिए, कोई शब्द नहीं है । यह अनिर्वचनीय, अवाच्य, अवक्तव्य है। "जो निवारण को प्राप्त होता है, उसका प्रमाण नहीं है, जिसमे कह सकें कि यह क्या है ।" यह एकान्त सुख है, यह अप्रतिभाग है । निर्वाण को मुख, शान्त, प्रणीत कहा है । भगवान् अज्ञातसूत्र में कहते हैं:- "हे मिलुनो ! यह अजात, अभूत, अकृत, असंस्कृत है । हे भिन्तुओ ! यदि यह अजात, अभूत, अकृत, असंस्कृत न होता तो जात, भूत, कृत, संस्कृत का निःसरण न होता । भगवान् पुनः कहते हैं-उसका ध्रुव निःमरण अतकर्य है, यह अजान, असमुत्पन्न, अशोक विरजपद है। वह दुःख धर्मों का निरोध है । वह संस्कारों का उपरम है।