पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/९७

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प्रथम अध्याय ६ ऊपर दिये हुए. उद्धरणों में निर्वाण के लिए 'अमृतपद' शब्द का प्रयोग होने से कुछ विद्वानों का कहना है कि बुद्ध ने जिम निर्वागा की शिक्षा दी थी, वह श्रात्मा के अमरत्व का और मोक्ष में नित्य-सुख का द्योतक था । इन विद्वानों का कथन है कि आगे चलकर औद्धधर्म का रूप विकृत हो गया और वह निर्वाण को सर्वदुःश्व का अभाव-मात्र मानने लगे । शरवात्स्की ने इस मत का खण्डन किया है और उन्होंने इस बात को सिद्ध करने की चेष्टा की है कि बुद्ध की शिक्षा के अनुसार निर्वाण नित्य-सुख की अभिव्यक्ति नहीं है । यह अमिताभ का सुखावती. लोक नहीं है, जहाँ नित्य-सुख की कल्पना की गई है। उनका कहना है कि निर्वाण लोकोत्तर है और अमृत-शब्द का अर्थ केवल इतना है कि वह अमृत्यु-पद है। निर्माण में न जन्म है, न मृत्यु । श्रागे चलकर हम बौद्धों के विभिन्न प्रस्थानों के आधार पर निर्वाण का विस्तृत विवेचन करेंगे। अनेक प्रकार के भिक्षु बुद्धोपदिष्ट निर्वाण के स्वरूप की जो भी व्याख्या की जाय, बौद्धशासन में भिन्न रुचि और प्रकृति के अनुसार कई प्रकार के भिन्न थं। गभिमनिकाय के महागोसिंग-सुत्त में इन विविध प्रकार के भिन्तुओं का परिचय मिलता है । एक समय भगवान् गोसिंग-शालवन में विहार करते थे। उनके साथ आनन्द, शारिपुत्र, मौद्गल्यायन, महाकाश्यप, रैवत, अनिरुद्ध आदि भिक्षु थे। धर्म-श्रवण के लिए ये लोग शारिपुत्र ले. पास गये (शारिपुत्र को धर्म-सेनापति भी कहते हैं)। भगवान् के परिचारक यानन्द को आते देख शारिपुत्र ने उनका स्वागत किया और कहा कि गोसिंग-शालवन रमणीय है; शालवन फूले हुए हैं; दिव्य गन्ध बह रही है, रात्रि निर्मल है। हे श्रानन्द ! किस प्रकार के भिन्तु से इस वन की शोभा होगी ? अानन्द ने उत्तर दिया कि हे शारिपुत्र ! जो बहुश्रुत है, जो चारों परिपदों ( भितु, भित्तुरखा. उपासक और उपासिका ) को कल्याण-धर्म की देशना ( उपदेश ) देता है, ऐसे भिक्षु से यह बन शोभित होगा । शारिपुत्र ने यही प्रश्न औरों से किया। महाकश्यप ने प्रश्न के उत्तर में कहा कि जो भिन्नु अरण्य में निवास करता है, और जो १३ धुतंगों को प्रशंसा करता है और उसका ग्रहण करता है, वह इस वन की शोभा बढ़ायेगा । पुनः किसी ने शारिपुत्र के उत्तर में विनय की प्रशंसा की और किसी ने अभिधर्म के महत्व का वर्णन किया । इस संवाद में जिन विविध प्रकार के भिक्षुत्रों का वर्णन किया गया है, उनमें श्रानन्द ही उस प्रकार के भिन्नु हैं, जिनके द्वारा बौद्धधर्म का प्रचार हुअा। अानन्द वन में एकान्त-वास कर समाधि में निमम नहीं रहते थे। यही कारण है कि आनन्द लोक प्रेय थे । भगवान् के वे उपस्थापक थे । पचीस वर्ष तक उन्होंने भगवान का परिचर्या की। वे उनकी गन्धकुटी में नित्य झाडू देते थे, उनका बिछौना विधाते थे, स्नान के लिए पानी रखते थे और उनका शरीर दबाते थे। इतना ही नहीं, आनन्द बहुश्रुत थे । वे बड़े अच्छे वक्ता थे । भगवान् के सब सूत्रान्त उनको कंठस्थ थे। उनकी स्मृति-शक्ति प्रबल थी। बहुत-से संबाद उनके समन दिये गये थे। जिन संवादों में वे उपस्थित नहीं होते थे, उन्हें वे बुद्ध गे पीछे सुन लेते थे । उपस्थापक होने 1 २