पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/९८

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१० बौधर्मदर्शन के पहले जो शर्ते उन्होंने की, उनमें से एक यह भी शर्त थी। यही कारण है कि प्रथम महा- संगीति में आनन्द ने धर्म ( सूत्रान्त ) का पाठ किया। यही कारण है कि सूत्रान्त इस वाक्य से प्रारम्भ होते हैं-"एवं मे सुत" ( मैंने ऐसा सुना है ) 'मैंने से श्रानन्द इष्ट हैं । बुद्ध कहते है कि श्रानन्द बहुश्रुत, श्रुतधर हैं। वह श्रादि-कल्याण, मय-कल्याण, पर्यवसान-कल्याण धर्म का चार परिषदों को ( भिक्षु, भिक्षुणी, उपासक और आसिका) उपदेश देते हैं। इन्होंने सम्यग् दृष्टि से धर्मों का सुप्रतिवेध किया है। श्रानन्द बुद्ध को बहुत प्रिय थे। आनन्द के श्राग्रह पर ही बुद्ध ने स्त्रियों को संघ में प्रवेश की अनुमति दी थी । भगवान् की माता की बहिन महा प्रजापती गौतमी ने, जिन्होंने महामाया की मृत्यु के पश्चात् भगवान् का पालन-पोषण किया था, भिक्षुणी होने की इच्छा प्रकट की। भगवान् ने निषेध किया | श्रानन्द ने गौतमी का पक्ष लेकर भगवान् से तर्क किया और कहा कि क्या स्त्रियों को निर्वाण का अधिकार नहीं है । भगवान् को स्वीकार करना पड़ा कि है । तत्र श्रानन्द ने कहा कि क्या भगवान् की विमाता ही, जिन्होंने भगवान् का लालन-पालन किया, इम उच्चपद से वंचित रह जायेंगी । इस तर्क के आगे भगवान् अवाक हो गये और उन्हें अनिच्छा से इसकी अनुमति देनी पड़ी। इस कारण अानन्द भिक्षुणियों में बड़े प्रिय थे । भिक्षुणियाँ उनका सदा पक्ष लिया करती थीं और यदि कोई उनको कुछ कहता था, तो वे उनकी ओर से लड़ती थीं । श्रानन्द सुवक्ता थे, धर्मोपदेश के लिए, उनकी ख्याति थी; हर जगह उनकी मांग थी। वे बड़े ही दयालु थे और लोगों को दुःखी देखकर उनका हृदय द्रवित हो जाता था । वे सरल हृदय और निःस्वार्थ थे। शारिपुत्र से इनकी विशेष मित्रता थी । अन्छी अच्छी वस्तु जो इनको दान में मिलती थी, उसे ये शारिपुत्र को दे दिया करते थे। शारिपुत्र की मृत्यु पर इनको बहुत दुःख हुअा था। हम देख चुके हैं कि अानन्द स्त्रियों के अधिकार के लिए. लड़े थे | एक बार उन्होंने बुद्ध से पूछा था कि न्त्रियाँ परिपदों की सदस्या क्यों नहीं होती, व्यापार क्यों नहीं करती ? चाण्डाल के लिए भी उनके मन में घृणा नहीं थी। वे रोगियों को भी मान्वना देने जाया करते थे। दोपहर को जब भगवान् विश्राम करने थे, तब वे रोगियों की शुश्रूषा में लग जाते थे। वे धर्म- भाण्डागारिक कहलाते थे। उनकी मृत्यु पर यह श्लोक उनकी प्रशंसा में कहे गये थे- बहुम्सुतो धम्मधरो कोसारको महेसिनो। चक्खु सब्बस्स लोकस्स आनन्दो परिनिबुतो ॥ बहुरसुतो धर्मधरो-ब-अन्धकारे तमोनुदो । गतिमन्तो सतीमन्तो धितिमन्तो च सद्धम्माधारको थेरो श्रानन्दो रतनाकरो। (थेरगाथा १०४७-४६) भगवान् का परिनिर्वाण जब भगवान् का कुमिनारा (कमिया) के शालवन में परिनिर्वाण हुना, तब श्रानन्द उनके साथ थे। भगवान् ने अानन्द से कहा कि मैं बहुत थका हूँ, और लेटना चाहता हूँ; दो शाल- इसि ॥