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६८ : भक्तभावन
 


कवित्त

झरझर झांपे बड़े दरदर ढाँपे नापें। थर थर काँपे तऊ बाजत बतीसी जाय।
फेर परमीशन के चौहरे गलीचन पें। सेज मखमली सौरि सोऊ शरदी सी जाय।
ग्वाल कवि कहे मृगमद के धुकाये घूम। औढि बओढि घरमार आगि हू छपीसी जाय।
छाके सुराशीशो हून शीशो ये मिटेंगी कभू। जोलो उकसीलो छाती सों न मीसी जाय॥५५॥

कवित्त

उदर हिमाम जामें नाभि कुण्ड कमनीय। हीयचली अंगिठी जटित मनिमाला की।
मेन की उमंग सों अमंग है अगिन आछी। उरजन शीश कसतूरी रंग आला की।
ग्वाल कवि तन की सुगंध अंबरात रहे। मिलन प्रसंग की सो लिपट दुशाला की।
अंग अंग बाला के ये गरम मसाला सब। ये हो नंदलाला चलि लीजें मौज पाला की॥५६॥

कवित्त

ऐसी तौन गरमी गलोचन के फारसो में। है न बेस कीमती बनात के दुमाला में।
में वन की लोज में न होय में हिमाम हूके। मृगमद मौज में न जाफरान जाला में।
ग्वाल कवि अंबर अतर में अगर में न। उमदा सेंवर हूयें है न दीपमाला में।
द्वै द्वै दुशाला में न अमलों के प्याला में न। जैसी पाला हरन सकत प्यारी बाला में॥५७॥

कवित्त

बारियाँ महल की न हलको मुदी है जहाँ। राशि परिमल को अंगीठियाँ अनल की।
जोतें मोम भलकी चैगेरे है नुकल को सु। प्यालियाँ अमल की पलंगे मखमल की।
ग्वाल कवि थल की सची सी लंक वल कीबो। फूल सम हलको प्रभा में झलाहल की।
विपरीत ललको कहे को बात कलकीसु। बाले छवि छलकी दुशाले में उछल की॥५८॥

कवित्त

गाले अति अमल भराले तोसकोमें फेर। ऊपर गलीचे बिछवाले जालवाले अब।
सेजन में सेज बंद खूब कसवाले वाले। खाले रसवाले जे गजक बनवाले सब।
ग्वाल कवि प्यारी कों लगाले लिपटाले अंक। सोइ के दुशाले में मजाले अति आले जब।
मंजुल मसाले मिले सुरा के रसाले पिये। प्याले पर प्याले मिटे पाले के कशाले तब॥५९॥

कवित्त

सोने की अंगीठिन में अंगोन अधूम होय। होय धूम धार हूतो मृगमद आला की।
पौन को न गौन होय भर क्यो सु भौन होय। मेवन के खोन होय डबियो मसाला की।
ग्वाल कवि कहे हूर परी सें सुरंग वारी। नाचती उमंग सों तरंग तान ताला की।
बाला की बहार औ दुशाला की बहार आई। पाला की बहार में बहार बड़ी प्याला की॥६०॥