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षट्ऋतु वर्णन तथा अन्योक्ति वर्णन : ६१
 


कवित्त

कन्या के भयो अभूत पूत मजबूत महा। बल है अकृत द्यूत पनमें अलो रहे।
बाध बाध देत है समाध ऊध्धं रेतन की। रंकन अगाध आध व्याधन ढर्यो रहे।
ग्वाल कवि कहे पर घर का अपर घर। थर थर काँपै तऊ नेक न डर्यो रहै।
एसो सोत जबर निरखि रवि डरकर। हरबर धाम घन मकर पर्यो रहै॥६१॥

कवित्त

कासमीर कारीगर काम के कमाये भये। कुंजदार क्यारिन में पसमीनी फरसें।
सेज मखमली पर मैनका सी मदभरी। मद को मुरादभरी मानिक सी सरसें।
ग्वाल कवि चादर संकरी हो सरीर पर। आतस अनंग हो को अंगन में परसें।
समेके खिले पे खेल के खेले में दिले। इतने मिले पें सीत दूरहू न दरसें॥६२॥

कवित्त

कातिकादि चारों मास तखत बिछाई बैठ्यो। बदल सजल जग छत्र छबि छाई है।
तब तब मेह धार चौंर चारु ठोरियत। सुरहर पौन को वजोरी सरसाई है।
ग्वाल कवि बरफ बिछायत कोहर दल। ठिरनी प्रबल नीकी नौबत बजाई है।
शीत बादशाह सोन दूजो कोक दरसाय। पाय बादशाही बाँटे सबको रजाई है॥६३॥

शिशिर ऋतु वर्णन
कवित्त

रेनि घटि घटि के बढ़न लाग्यो दिनमान। लागी है बढ़नि गरमान भान संग की।
शोरी शीरी पवन हितान लागो कबहूँक। धोरी धीरी आयत सुगंध हर रङ्ग की।
ग्वाल कवि कहे ठंड सांझ तें सवारे लग। उठत तरङ्ग तामें मदन उमंग की।
शिशिर में शीत की लगी है होन डगमग। मग मग होन लागी जगमग रङ्ग की॥६४॥

बसन्त ऋतु वर्णन
सवैया

फूलि रही सरसों चहुँ ओरजो सोने की बेस बिछायत सांचे।
चीर सजे नर नारिन पीत, बढ़ी रसरीत बरङ्गना नाचें।
त्यों कवि ग्वाल रसाल के बौरन, भौरन औरन ऊधर मांचे।
काम गुरू भयो पराग शरू भयो, खेलियें आज बसन्त की पाँचे॥ ६५॥

कवित्त

खेले बाग बाग में पगिहै प्रेम पाग में सु। लाल लाल पाग में टके है गुलताग में।
छके है रङ्ग राग में जके है जंग जाग में। भीजे रङ्ग राग में परे है अंग थाग में।
ग्वाल कवि दाग में रहे न होय लाग में। रस में समाज में मलिंद ज्यों पराग में।
कोई फबि फाग में अनेक अनुराग में सु। में तो विरहाग में लिखन निष भाग में॥६६॥