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७६ : भक्तभावन
 

कवित्त

ध्यानी जे इकंत के महंत मति ग्यानी तिन्हें। कीने रसवंत तंत में न फौजवारे में।
कूजत है कोकिला कसाइन कलंक भरी। कतल करी है री मलिंद मतवारे में।
ग्वाल कवि बाँधी सलतंत क्यों न एती तहाँ। कंत विरमाये जिहि देश दुखहारे ने।
हाय हाय वीर विरहागिन में बारि दई। बैरी बलवंत या बसन्त बज मारेने॥१०३॥

सवैया

नेह निवाह चलो ब्रजचन्दजू चन्दमुखी हिहूलत हूके।
बौरन बौरन भौरन झौरम कीनी गुन्जार सों वेधैं अचूके।
त्यों कवि ग्वाल कुसंभ पलासन डार पे एसें अंगार भभूके।
कारि कसाइनि कूर कलंकित कंकिनि केलियाँ काढतो कूकें॥१०४॥

कवित्त

जानि जिय आगम निदाघ रितु ग्रीषम को। विषम वियोग बान आनहियो पैठ्यो है।
कोने पात पात बिन बसन विशेष भेष। डारे रही सूख रूख रूख मैंन ऐठ्यो है।
ग्वाल कवि पुहुम पलास के सुरंग रंग। दीसत अभंग ये कछु इक अमेठ्यो है।
मानो रितुराज महबूब के मजेमें मजि। बन बनि आशक जुखाइ गुल बैठ्यो है॥१०५॥

कवित्त

पीरे बन बाज अनुराग भरे भाग भरे। अंग अंग रंग की उमंगन में पैठे है।
पीरे ही फरस पर पीरे ही वसन सन। पीरे ही रतन तन अतन अमेठे है।
ग्वालकवि पीरे गोल गेंहुवा पलंग पोरे। पोरे पान छाये पोरे हारहार ऐठे है।
है न ये बसन्त ह्वै बसन्त रहे राधिका के। दोक या बसन्त में बसन्त बनि बैठे है॥१०६॥

कवित्त

कूकें सुनि कोकिलान धीर को किला न रहे। आने कोकलान को फलान नजरें नहीं।
फूल से कुल कुसुमन कुसमन कुल आली। कुसमन हिये दुसमन ही डरे नहीं।
ग्वाल कवि किये परये वियोगनतें। परचे अंगारन सें परचे टरे नहीं।
ऐसे विसरे न मोहि नेको विसरेन हाइ। प्रान निसरेन ये पी प्रान निसरे नहीं॥१०७॥

कवित्त

त्रिविधि पवन परवानो पहुँचायो लाभ। तामे लिख्यो हाल सो सुनाऊँ बिन ढील है।
याते मृगनेनी प्रानगढ़ तजि आओ पास। नांहि सो ढवाऊँ भेजि भौर पुझ फील है।
ग्वाल कवि किंशुक कुसुम फौज ऐहे फेर। गहके गुलाब जोले करि डोर खील है।
कंत और नर को पढ़ायो यह आयो छायो। रतिकंत साहब वसन्त सो वकील है॥१०८॥