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अथ अन्योक्ति प्रारंभ

तोतान्योक्ति

जाइ जिन तोता नारिकेर के बड़ेरे तरु। कौन अब पार जातें छिलका छिले है तूं।
छीलहू लियातो फेर फूटि है न तेरे पास। फोरि हू लियो तो गरी गरी को चवे है तूं।
ग्वाल कवि यातें लघु तरु पें विरमि रहु। बीज भी बकुल बिन सुफल चित है तूं।
श्रमतें विनाही बेस किसमिस के झूमकागन। झूम झूम खैहे स्वाद लैहे सुख पै है तूं॥१॥

शिरीषान्योक्ति

पंकज गुलाब गुल मूल के महित सदा। चम्पक को करकश गन्ध अति धेरे है।
यातें अहो शिरिष सिरफ एक तुम्हें जान। आयो दूर देश तजि अलिको सु डेरे है।
ग्वाल कवि सुखद सबेई विधि ताक्यो तुही। पूजि है तु आश विसवास हिय मेरे है।
आयो मैं उछाहतें सुवास रस चाहिबे कों। आमें अब नेह को निवाह हाथ तेरे है॥२॥

भ्रमरान्योक्ति

मालती शिरिष औ कंदब के कंदबन तें। फैलत सुगन्ध दूर ही तें अति स्वच्छ है।
दौर दौर गयो जिन जिन पें जबेई तबे। पास हू गये मिलि परिमल लच्छ है।
ग्वाल कवि आगें केवडान की लपट लागे। घाइ मयो तिनही के धोखे खोलि अच्छ है।
पास पहुंचे तें पाई वह न सुवास रास। उडि न सकत कियो कंटक विपच्छ है॥३॥

घनान्योक्ति

शरद हिमन्त अन्त करिकें शिशिर तन्त। वितयो वसन्त गार्यो ग्रीषम को थम्ब है।
आइ अब पावस समाज इक ठौरो भयो। घेरो भयो घनो फुल्यो बन नि कडम्ब है।
ग्वाल कवि त्रिविधि समीर को अण्डबर ह्वै। अम्बर में धनुष लखायो विकलम्ब है।
ये हो धन दीजे स्वाति बुन्द के कदम्ब मोहि। अम्ब की दुहाई एक तेरो अवलम्ब है॥४॥

मालाकारान्योक्ति

ऐके बागवान तें लगायो है रसाल पौधा। तासुकी वहालरीत पूर करी चाहिये।
तल हो सिरफ मूल मोहि भर देइ वेते। चलत न काम स्वछा भूर करी चाहिये।
ग्वाल कवि देव की झुकाव की तरफ चाहे। वाटहू जातें नैको दूर करी चाहिये।
शीत धूप वरषा निवारिन निवित्त ताकों। त्रनन की छाया हू जरूर करी चाहिये॥५॥